भारत में महिलाओं के लिए क्यों आज भी चुनौती पूर्ण है अपने स्वास्थ्य अधिकारों को पाना? भाग 1​

अभी हम वैश्विक स्तर पर एक महामारी झेल चुके हैं।  कोविद-19  अपने साथ कई विनाश और चुनौतियों लेकर आय।  लेकिन उसके साथ साथ कई सबक भी देकर गया हालांकि। कोरोना का सेकंड फेज ही ये बताने में काफी है कि अब क्यों हमें एक सशक्त पब्लिक हेल्थ सेक्टर की सख्त जरुरत है।  एक ऐसे  पब्लिक हेल्थ सेक्टर की जो मजबूत हो, नागरिकों के प्रति जबाबदेह हो और जो महज औपचारिकतापूर्ण ही न हो बल्कि वो व्यवस्थित तरीके से काम भी करने वाला हो। अब सबको मिलकर इसके लिए प्रयास करना होगा, ये एक ऐसी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है जिससे अब भागा नहीं जा सकता।

 वैसे तो  किसी भी वेलफेयर स्टेट में ये सुनिश्चित करना राज्य का ही दायित्ब है कि वह अपने नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव के स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करे।  हालांकि भारतीय सविधान में स्वास्थ्य अधिकार को अलग से  मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित नहीं किया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 21 के तहत इसकी व्याख्या करते हुए इसे मौलिक अधिकार माना है। स्वास्थ्य का अधिकार एक मौलिक अधिकार होते हुए भी हम उस पर कितना खर्चा कर रहें हैं?  एक आंकड़े के अनुसार   स्वास्थ्य पर होने वाला खर्चा 2019 -2020  जीडीपी का महज 1 .29 ही था जो दुनिया में सबसे कम है। कोरोना काल में हमारी चरमराई स्वास्थ्य प्रणाली  के कारण इस बार देश का शहरी मध्यमवर्ग भी काफी प्रभावित हुआ है।

  हॉस्पिटलों के बहार लोगों की लम्बी लाइनें, ऑक्सीजन और बेड्स के आभाव में लोगों की होती दर्दनाक मौते इस बात की बानगी है।  लेकिन उनका क्या जो  एक बेहतर स्वास्थ्य  प्रणाली के न चलते सामान्यतः वैसे भी प्रभावित होते है। क्यों की स्वास्थ्य का सवाल सीधे तौर पर हमारे सामाजिक आर्थिक ढांचे से भी जुड़ा सवाल है इसी लिए एक बेहतर पब्लिक हेल्थ के अभाव  का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा हाशिये के समुदायों पर ही पड़ता  है।  जनगणना 2011  के अनुसार भारत में शहरीकरण 27.81 % से बढ़कर 31 हो गया है।  जनसंख्या की  लगभग 33 % आबादी शहरों में रहती है। हमारे मौजूदा स्वास्थ्य ढांचे में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इतनी बढ़ी आबादी के स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा कर सके।  ध्यान रहें ये आंकड़ा 2011 की जनगणना  के है आज हम 2023 में हैं इस लिहाज से आप अंदाजा लगा सकते हैं अब तक शहरों में रहने वाली जनसंख्या में और कितनी बढ़त हुयी होगी ।  कई शहरों में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्र उपलब्ध नहीं हैं जहाँ हैं उनका उपयोग बहुत कम होता हैं , उनमे अधिकांश उपकरण और मशीनरी  का उपयोग नहीं हो रहा है।

महिलाएं और स्वास्थ्य                  

भारत का सामाजिक पितृसत्तात्मक समाज है जिसका असर महिलाओं के जीवन के हर पहलु पर पड़ता है। यह पितृसत्तात्मक सोच यहां के महिलाओं के स्वास्थ्य को बहुयामी रूप से प्रभावित करती है जब हम महिला स्वास्थ्य की बात करते हैं तो हमें इसे मुख्य रूप से दो भागों में भागों में बाट कर  देखना चाहिए पहला शरीरिक और दूसरा मानसिक अगर हम बात करें महिलाओं के शरीरिक स्वास्थ्य की तो यहां भी स्थिति कोई बहुत संतोषजनक नहीं है इससे जुड़े कई पहलु है जिसके कारण महिला अपने स्वास्थ्य अधिकारों से वंचित होती है और जिसका सीधा असर  उसके शरीरिक स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी उसे प्रत्यक्ष रूप से ही सही देखा तो जा ही सकता है। लेकिन एक ऐसे समाज में जहां पर मानसिक स्वास्थ्य को लेकर वैसे भी अमूमन तौर  पर एक निराशाजनक माहोल है मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कई प्रकार की भ्रान्तियां  मौजूद  हैं ऐसी स्तिथि में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर बात करना और  भी ज्यादा जरूरी हो जाता है। महिला प्रत्यक्ष रूप से प्रारम्भिक दिनों में जो मानसिक पीड़ा झेलती है उसे अमूमत: टाला ही जाता है जिसका नातीजा महिलाओ को डिप्रेशन और अवसाद की तरफ ले जाता है जो कि ना तो उसके स्वयं के लिए अच्छा होता है, न उसके परिवार के लिए और न ही समाज के लिए।                                                                                                                                                                                 एक अध्यन के अनुसार वैश्विक स्तर पर, लगभग 800 महिलाएं हर दिन गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित निवारणीय कारणों से मर जाती हैं, जिसमे से  20 प्रतिशत महिलाएं भारत से हैं। भारत में महिलाओं की मौत के शीर्ष 10 कारणों में से सात एनसीडी हैं, जिनमें दिल का दौरा, स्ट्रोक और सांस की बीमारियां प्रमुख हैं। 2016 में एनएफएचएस-4 के अनुसार 53.1 प्रतिशत गैर-गर्भवती महिलाओं और 50.3 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में एनीमिया का बोझ व्यापक रूप से महिलाओं में है, जहां भारत के लिए विभिन्न कार्यक्रम और नीतियां होने के बावजूद यहाँ एनीमिया का सबसे अधिक  है। महिलाओं के लिए एक सुरक्षित प्रजनन आज भी एक चुनौती बना हुआ है । जहाँ वैश्विक स्तर पर मातृ  मातृ मृत्यु का 14 प्रतिशत हिस्सा इसी कारण से होती है, वहां हम सुरक्षित गर्भपात सेवाओं की आसान पहुंच प्रदान करने में अभी तक असफल रहें हैं                                                                                                                  

महिला स्वास्थ्य और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक अंतर संबंध

हमारे पितृसतात्मक समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य का विषय भी काफ़ी सारे पहलुओं से जुड़ा हुआ रहता है। जेन्डर संबंधित भूमिकाएँ, स्थान, संसाधानों तक पहुँच इस स्वास्थ्य को निर्धारित करता है; इसी के साथ साथ सामाजिक व राजनैतिक ढांचे जिसमें की स्वास्थ्य नीतियाँ, कानून वग़ैरा होते हैं वे भी काफ़ी प्रभावशाली रहते हैं। ऐसे में महिला स्वास्थ्य की बातचीत एक जटिल बात हो जाती है लेकिन एक महत्वपूर्ण बात भी। अभी यह महामारी कोविड-19 के संदर्भ में भी हुमने जाना है महिलाओं के लिए परिस्थिति और भी संकटपूर्ण हो गई है|जब हम महिलाओं की बात करते है वह पहले से ही हाशिये पर रही है उसमे जब हम आदिवासी या दलित महिला की बात करते है, उनकी हाशियाकरण की तीव्रता और भी अधिक मात्रा में बढ़ जाती है | ‘महिला स्वास्थ्य’ का अर्थ ज़्यादातर गर्भावस्था तथा प्रसव तक ही सिमित किया जाता है एवं मातृ स्वास्थ्य सेवाओं को भी व्यापक रूप से नहीं देखा जाता है, ये केवल महिलाओं की मां बनने की भूमिका का ही ध्यान कराती हैं जिसका प्रयाय सीधा-सीधा जेन्डर भूमिकाओं से है जिसके बारे में हुमने शुरू में बात की। महिलाओं को हमेशा से एक बच्चा पैदा करने वाली यन्त्र की तरह देखा गया है जो परिवार को बच्चा जनकर देती है | महिलाओं का स्वास्थ्य तथा उनसे सम्बंधित अन्य आवश्यकताओं को उनके शारीरिक स्थिति या मानसिक स्थिति के बारे में कोई नहीं सोचता | महिलाओं के लिए उनको चयन या निर्णय लेने का अधिकार है, इस बात का अवसर नहीं दिया जाता है उसी सामाजिक व राजनीतिक ढांचे में जो की पितृसतात्मक ऐसे में महिला स्वास्थ्य पर बात करते हुए अनेक सवाल ध्यान में आते है जैसे स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुँच कैसी है ? क्या वह स्वास्थ्य तंत्र में सेवाओं को लेने में अपने आप को सहज महसूस करती है ? यह सब स्वास्थ्य सेवाएँ महिलाओं के लिए कितना मजबूत बनाया गया है ?एक व्यक्ति का स्वास्थ्य उसकी खुशहाली से भी जुड़ा होता है। अच्छा स्वास्थ्य एक ऐसी व्यक्तिगत व सामाजिक अनुभूति है जिसमे महिला अपने आप को सक्रिय,समझदार और आत्म विश्वास तथा योग्य महसूस कर सकती है | जिसमें उसको शारीरिक व मानसिक रूप से मजबूती मिलती है | जब गर्भधारण, गर्भसमापन या परिवार नियोजन की बात आती है कभी भी महिलाओं को उनकी राय देने का मौका नहीं दिया जाता है | महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं तक जाने में हिछ्किचाहट इसलिए भी पाई जाती है क्यूंकि जो स्वास्थ्य तंत्र है वह महिलाओं के इच्छा के अनुरूप नहीं बनाया गया है | स्वास्थ्य प्रणाली में अलग- अलग प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता हैं जो आदिवासी या दलित समुदाय की महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं को लेने से वंचित करती है |

घरेलू हिंसा

 भारत में  घरेलू हिंसाो महिलाओं के जीवन के और उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक चिंताजनक विषय है। घरेलू हिंसा को रोकने के लिए देश में सबसे पहला कानून दहेज निषेध अधिनियम (1961) में संशोधन के माध्यम से लागू किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी में पति या ससुराल वालों द्वारा दहेज की मांग के संबंध में किसी भी प्रकार की हिंसा को अपराध माना गया है। जैसे-जैसे नारीवादी विद्वता और सक्रियता विकसित हुई, अंतर-विषयक अध्ययनों ने पति-पत्नी और पारिवारिक हिंसा के बहुआयामी कारणों और महिलाओं पर उनके प्रभावों को और अधिक स्पष्टता दी। 1983 में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत एक आपराधिक अपराध के रूप में परिभाषित किए जाने के बावजूद, घरेलू हिंसा भारत में महिलाओं के लिए सबसे गंभीर खतरों में से एक बनी हुई है। एक समर्पित नागरिक कानून , घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (पीडब्ल्यूडीवी), अंततः घर में पीड़ित महिलाओं को तत्काल राहत प्रदान करने के लिए पेश किया गया था, जो अपने पतियों और ससुराल वालों द्वारा दुर्व्यवहार का शिकार हो सकती हैं।  आज पूरे भारत में जाति, वर्ग, धर्म, उम्र और शिक्षा से परे घरेलू हिंसा एक व्यापक घटना बनी हुई है। 2006 से 2019 तक एनएफएचएस सर्वेक्षणों में पाया गया है कि भारत में, विशेष रूप से कुछ क्षेत्रों में, पति-पत्नी के बीच हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, महाराष्ट्र जैसे राज्यों और जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के नवगठित केंद्र शासित प्रदेशों  में 2015-16 के दौरान गिरावट का पैटर्न दिखा, जो 2019 में फिर से उल्लेखनीय रूप से बढ़ गया। पांचवें एनएफएचएस (2019-21) के राज्यों के हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि देश में जिन राज्यों में वैवाहिक हिंसा की दर सबसे अधिक है: वह हैं कर्नाटक, बिहार और मणिपुर, राजस्थान। वैसे तो दुनिया भर में, 730 मिलियन से अधिक महिलाओं ने बताया है कि उन्होंने कभी न कभी लिंग-आधारित हिंसा का अनुभव किया है; अधिकांशत: निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लोग असमान रूप से प्रभावित हैं। पिछले दो वर्षों में, आजीविका के नुकसान, सामाजिक और सुरक्षात्मक नेटवर्क में व्यवधान और प्रतिबंधित आंदोलन के बढ़ते तनाव के कारण, सीओवीआईडी ​​​​-19 महामारी ने महिलाओं द्वारा अपने अंतरंग सहयोगियों के हाथों हिंसा की घटनाओं में वृद्धि की है। हिंसा का महिलाओं के स्वास्थ्य और उन बच्चों के स्वास्थ्य पर तत्काल प्रभाव पड़ता है जिन्हें वे जन्म देती हैं और उनकी देखभाल करती हैं। महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को एक वैश्विक रूप की समस्या माना जाता है जो अपने जीवनकाल में हर तीन में से एक महिला को प्रभावित करती है।

विकासशील देशों में रहने वाली 15-49 वर्ष की महिलाओं में अपने जीवनकाल घरेलू हिंसा के शिकार होने का प्रतिशत 37 है। युवा महिलाओं (15-24) के लिए ये जोखिम और भी अधिक बढ़ जाता है, हर चार में से एक महिला जो कभी किसी रिश्ते में रही है उसे  किसी न किसी प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ता है। दरअसल, घरेलू हिंसा एक सर्वव्यापी सार्वजनिक-स्वास्थ्य चिंता है जिसका महिलाओं को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न रूपों में सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में, 2020 अपराध सर्वेक्षण ने घरेलू-दुर्व्यवहार से संबंधित अपराधों में 2019 से 9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, 2016 से 2018 तक घरेलू हिंसा का अनुभव करने वाली महिलाओं की संख्या में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में, 30 प्रतिशत महिलाओं ने कब से कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का अनुभव किया है उनकी उम्र 15 वर्ष थी, और लगभग 4 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं ने गर्भावस्था के दौरान पति द्वारा हिंसा का अनुभव किया है।

भारत, नेपाल और बांग्लादेश के 2017 के एक अध्ययन में पाया गया कि जीबीवी किशोर और युवा वयस्क विवाहित महिलाओं के बीच अनपेक्षित गर्भधारण के लिए एक जोखिम कारक है। विभिन्न देशों के अध्ययनों ने भी आईपीवी और नैदानिक ​​​​अवसाद के बीच मध्यम से मजबूत सकारात्मक संबंधों का सुझाव दिया है। इन विश्लेषणों में उन महिलाओं में अवसादग्रस्त विकारों के दो से तीन गुना और बढ़े हुए अवसादग्रस्त लक्षणों और प्रसवोत्तर अवसाद के जोखिम में 1.5 से दो गुना वृद्धि देखी गई, जो अंतरंग-साथी हिंसा का शिकार हुई हैं। इन महिलाओं ने चिंता और अवसाद के अधिक प्रकरणों की सूचना दी, और जन्म के समय कम वजन वाले शिशुओं, समय से पहले प्रसव और नवजात शिशुओं की मृत्यु का खतरा बढ़ गया। 2005 के एक अध्ययन में, अमेरिका में दक्षिण एशियाई महिलाओं ने बताया कि घरेलू हिंसा ने उनकी यौन भारत, नेपाल और बांग्लादेश के 2017 के एक अध्ययन में पाया गया कि जीबीवी किशोर और युवा वयस्क विवाहित महिलाओं के बीच अनपेक्षित गर्भधारण के लिए एक जोखिम कारक है। विभिन्न देशों के अध्ययनों ने भी आईपीवी और नैदानिक ​​​​अवसाद के बीच मध्यम से मजबूत सकारात्मक संबंधों का सुझाव दिया है। इन विश्लेषणों में उन महिलाओं में अवसादग्रस्त विकारों के दो से तीन गुना और बढ़े हुए अवसादग्रस्त लक्षणों और प्रसवोत्तर अवसाद के जोखिम में 1.5 से दो गुना वृद्धि देखी गई, जो अंतरंग-साथी हिंसा का शिकार हुई हैं। इन महिलाओं ने चिंता और अवसाद के अधिक प्रकरणों की सूचना दी, और जन्म के समय कम वजन वाले शिशुओं, समय से पहले प्रसव और नवजात शिशुओं की मृत्यु का खतरा बढ़ गया।

 2005 के एक अध्ययन में, अमेरिका में दक्षिण एशियाई महिलाओं ने बताया कि घरेलू हिंसा ने उनकी यौन 10स्वायत्तता को कम कर दिया और अनपेक्षित गर्भधारण का खतरा बढ़ गया; कईयों को गर्भपात का सामना करना पड़ा। 2020 में अमेरिका, भारत, ब्राजील, तंजानिया, स्पेन, स्वीडन, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया और हांगकांग की महिलाओं की हालिया समीक्षा में पाया गया कि घरेलू हिंसा स्तनपान की अवधि कम होने के बढ़ते जोखिम से जुड़ी थी। बांग्लादेश और नेपाल के अध्ययन हिंसा और महिलाओं की खराब पोषण स्थिति, बढ़ते तनाव और खराब आत्म-देखभाल के बीच संबंध दिखाते हैं। बांग्लादेश में भी, जनसांख्यिकीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं से पैदा होने वाले बच्चों में समझौतापूर्ण वृद्धि दर्शाते हैं। भारत में, घरेलू हिंसा का जैविक और व्यवहारिक तरीकों से बचपन के विकास और पोषण पर प्रभाव पड़ता पाया गया है। के 2012-13 के आंकड़ों के एक अन्य विश्लेषण से पता चला है कि घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के बच्चों में कम वजन, बौनापन और दुबलेपन की समस्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि घरेलू हिंसा एक बैश्विक समस्या है जो समुदायों के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देती है और महिलाओं के जीवन, स्वास्थ्य और  को खतरे में डालती है। यह आमतौर पर देखा गाय है कि महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा के मामलों में होने वाली पुलिस रिपोर्टस के मामले बड़े हैं। इसका मुख्य कारण समाज में प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता ही है जिसमे आमतौर पर माना जाता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में शारीरिक और भावनात्मक रूप से कमजोर होती हैं और महिलाओं की आर्थिक निर्भरता भी है। हिंसा से पीड़ित महिलाओं में शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक समस्याओं से पीड़ित होने की संभावना अधिक होती है। जैसे चिंता, अवसाद, अभिघातजन्य तनाव विकार और आत्महत्यराष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) -3 के अनुसार, राजस्थान में अविवाहित महिलाओं के बीच घरेलू हिंसा का कुल प्रसार 28% था, जबकि राष्ट्रीय आंकड़ा 39.7% था। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में घरेलू हिंसा का प्रसार हरियाणा में क्रमशः 29.1% और 25.3% पाया गया, जबकि राष्ट्रीय आंकड़े क्रमशः 38.3% और 29.4% थे।हालाँकि एनएफएचएस-3 बताता है कि राजस्थान में घरेलू हिंसा आम है।

लैंगिक असमानता

प्रत्येक बच्चे का अधिकार है कि उसकी क्षमता के विकास का पूरा मौका मिले. लेकिन लैंगिक असमानता की कुरीति की वजह से ऐसा नहीं हैं। भारत में लड़कियों और लड़कों के बीच न  केवल उनके घरों और समुदायों में बल्कि हर जगह लिंग आधारित असमानता दिखाई देती है। पाठ्यपुस्तकों, फिल्मों, मीडिया आदि सभी जगह उनके साथ लिंग के अधरा पर भेदभाव किया जाता है। लैंगिक असमानता का प्रभाव जीवन के मिलने वाले अन्य अवसरो पर भी पड़ता है। आंकड़ों के आधार पर विश्व स्तर जन्म के समय लड़कियों के जीवित रहने की संख्या अधिक है साथ ही साथ उनका विकास भी व्यवस्थित रूप से होता है। उन्हें स्कूल भी भेजा जाता है  जबकि  भारत एकमात्र ऐसा बड़ा देश है जहां लड़कों की अनुपात में अधिक लड़कियों का मृत्यु दर अधिक है उनके स्कूल नहीं जाने या बीच में ही किन्ही करणों से स्कूल छोड़ने की प्रवित्ति अधिक पाई गई है। भारत में लड़के और लड़कियों के  बालपन के अनुभव में बहुत अलग होता है यहाँ  लड़कों को लड़कियों की तुलना अधिक स्वतंत्रता  मिलती है, जबकि लड़कियों की स्वतंत्रता में अनेकों पाबंदियाँ होती हैं इस पाबंदी का असर उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य,विवाह और सामाजिक रिश्तों, खुद के लिए निर्णय के अधिकार आदि को प्रभावित करती है। लिंग असमानता एवं लड़कियों और लड़कों के बीच भेदभाव जैसे जैसे बढ़ती जाती हैं इसका असर न केवल उनके बालपन में दिखता है बल्कि वयस्कता तक आते आते इसका स्वरूप और व्यापक हो जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-5 (2019-21) के निष्कर्षों के अनुसार एनएफएचएस-5 कई महत्वपूर्ण स्वास्थ्य आदानों के वितरण में महत्वपूर्ण सुधार दिखाता है। भारत ने स्वच्छ ईंधन, टीकाकरण आदि कई क्षेत्रों में भी अच्छी प्रगति की है। फिर भी, साक्षरता में वृद्धि की दर और पोषण संकेतकों में सुधार की दर एनएफएचएस-4 (2015-16) और एनएफएचएस5 के बीच धीमी होगई है। मृत्यु दर के अलावा, भारतीय महिलाओं को कई दूसरी स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो उनके खराब स्वास्थ्य और जीवनशैली में योगदान देते हैं। भारत में एनीमिया खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इससे वयस्क महिलाएं और पुरुष भी अछूते नहीं रहे हैं। मोटापे की एक उभरती चुनौती भी सामने है। महिलाओं में आम अन्य बीमारियों में स्तन कैंसर का बढ़ता बोझ, पीरियड्स की समस्याएं और मानसिक स्वास्थ्य शामिल हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपे एक लेख के अनुसार भारत में हर 4 मिनट में एक महिला को स्तन कैंसर का पता चलता है, और हर 13 मिनट में एक महिला की स्तन कैंसर से मृत्यु हो जाती है।

यह भारतीय महिलाओं में सबसे अधिक प्रचलित कैंसर है। 28 में से लगभग हर 1 महिला को अपने जीवनकाल में स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। साल 2030 तक, किसी भी अन्य बीमारी की तुलना में भारत में महिलाओं में स्तन कैंसर से सबसे अधिक मौतें होंगी।

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में 156 देशों में भारत 28 पायदान नीचे 140वें स्थान पर आ गया है, जो दक्षिण एशिया में तीसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश बन गया है। वेबसाइट लाइव मिंट के अनुसार भारत में लिंग अंतर 62.5% तक बढ़ गया है, जिसका मुख्य कारण

राजनीति में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, तकनीकी और नेतृत्व की भूमिका, महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी दर में कमी, खराब स्वास्थ्य सेवा, महिला से पुरुष साक्षरता अनुपात में कमी, आय असमानता है। वैश्विक स्तर पर भारत का रिकॉर्ड बड़ा ख़राब हो रहा है। वैश्विक स्तर पर गिरने के बावजूद सरकार ने स्वास्थ्य बजट 2022 में कटौती की है। कुल बजट में स्वास्थ्य का हिस्सा 2.26% तक गिर गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने स्वास्थ्य परिव्यय में वृद्धि की मांग की है। उनका दावा है कि 2022 का बजट सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम, COVID संबंधित प्रावधानों, महिलाओं और बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम को मजबूत करने के लिए पर्याप्त धन आवंटित करने में विफल रहा है। लैंगिक असमानता एक अभिशाप है, जो आज भी भारत में एक गंभीर रूप में मौजूद है।

 भारत में महिलाएं एक गहरे पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। भारतीय परिवारों में पारंपरिक, सामाजिक रीति-रिवाज इस हद तक जुड़े हुए हैं कि महिलाएं अवचेतन रूप से मानती हैं कि उनके पुरुष समकक्षों को भोजन, शिक्षा, संपत्ति, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच आदि के संबंध में बड़ा और बेहतर हिस्सा मिलना चाहिए। स्वास्थ्य समय के साथ पीछे छूट जाता है। उन्हें निर्णय लेने और स्वास्थ्य देखभालकी तलाश करने का अधिकार नहीं है, जिससे उनका स्वास्थ्य और खराब हो जाता है।राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर कई प्रयास, महिला सशक्तिकरण की दिशा में जारी हैं, उनकी स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों को संबोधित करते हैं। हालांकि, जब तक परिवार और समुदाय समुदाय में महिलाओं की स्थिति के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने के लिए खुद सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते, यह केवल एक भ्रम ही होगा। इस भ्रम को वास्तविकता में बदलने के लिए, हमें लैंगिक समानता की ओर एक कठोर और निरंतर प्रयास की आवश्यकता है और महिलाओं को अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिए सशक्त बनाना है जितना वे अपने प्रियजनों के स्वास्थ्य की देखभाल करते हैं।

पितृसत्तात्मक आधिपत्य के कारण महिलाओं के साथ अनादि काल से भेदभाव होता रहा है। विभिन्न अनिवार्य अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों एवं समझौतों के बावजूद यह भेदभाव बना हुआ है। दुनिया भर में, प्रजनन अधिकार, श्रम, शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित कानून पहले भी महिलाओं  को दबाने के साथ-साथ उन पर अत्याचार और शोषण करने के लिए उपयोग किए जाते थे और आज भी यह परिपाटी बनी हुयी है। अनेक देशों में समान अधिकारों से संबंधित कानूनों के बावजूद वास्तविकता यह है कि पुरुषों को आर्थिक लाभ  या उपार्जन अधिक आसानी से प्राप्त करने के अवसर अधिक और सरलता से मिलते हैं।  यही नहीं, राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व उनके अनुपात से कहीं अधिक है।संस्कृति से लेकर खेल जैसे क्षेत्रों में भी पुरुषों का हस्तक्षेप महिलाओं के अनुपात में बहुत ज्यादा है। इसे संतुलित करने की आवश्यकता है।

The author of this article is Manas Bhushan who is a prominent Journalist on Social issues. Manas Bhushan.

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