कांग्रेस की उबड़ खाबड़ यात्रा: एक मूल्यांकन

कांग्रेस की उबड़ खाबड़ यात्रा: एक मूल्यांकन

              सितंबर 2022 राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक यात्रा पर निकली नाम था भारत जोड़ो यात्रा। कहा गया कि इस यात्रा का उद्देश्य समाज में बढ़ती संम्प्रदायिकता, आर्थिक असमानता, संकुचित होता लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों पर बढ़ते खतरे के खिलाफ राहुल गाँधी कन्याकुमारी से कश्मीर तक खुद पैदल चलेंगे और सीधे जनता से जुड़कर भारत में बढ़ते अधीनयकता वाद के खतरे से देश और समाज को बहचाएंगे। इसके साथ साथ एक संभावना ये भी जताई जा रही थी कि संगठन के स्तर पर कांग्रेस की जो लचर स्थिति बनी हुयी है उसमे भी शायद कुछ बदलाव होगा और सांगठनात्मक और वैचारिक रूप से मजबूत होकर अब कांग्रेस शायद भाजपा और आरएसएस का सामना कर पायेगी।

                     फौरी तौर पर देखें तो ये एक सकारात्मक और ऊर्जावान कदम लग रहा था कम से कम कांग्रेस के लिहाज से तो था ही, और इसका फायदा कांग्रेस को चुनावों में भी अवश्य मिलने की संभवाना देखी जा रही थी। क्यों कि 2014 से लेकर 2019 तक के कार्यकाल में राहुल गाँधी क्या कर रहें थे, वो मदिर मंदिर जा रहें थे, खुद का गौत्र बता रहें थे, उस समय साफ तौर पर देखा जा सकता था कि उनके पास मोदी और भाजपा को काउंटर करने की न कोई स्पष्ट नीति है न कोई संगठन। इस लिए वो अपने लचर संगठन के साथ मोदी को हराने का सपना लेकर मज़बूरी में ही सही लेकिन उसी सडक पर अपनी यात्रा लेकर चल निकले जिसका निर्माण आरएसएस ने किया था। और उस यात्रा का वही नतीजा निकला जो होना था कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट के रह गयी। 

                     फिर आया 2022  का साल  इस बार शायद राहुल गाँधी अपनी यात्रा किसी और के द्वारा बनाई गयी राजनीतिक सडक की बजाय नई सडक पर करना चाहते थे। और हुआ भी यहीं। भारत जोड़ो यात्रा बड़े जोरों शोरो से शुरू हुयी। मंचों से राहुल गाँधी द्वारा आरएसएस की खुलकर आलोचना की गयी , अंबानी अडानी जैसे कॉर्पोरेट घरानों को आड़े हातों लिया। आर्थिक और सामाजिक न्याय पर खूब बोला। इस बार राहुल गाँधी ने जो सडक चुनी उसका निर्माण ऐसे मुद्दों पर हुआ जो भारतीय राजनीति में गोण हो चुके थे या जिन पर कम से कम मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां तो बात करने से बचती ही थी।  और फिर आया कर्नाटक का चुनाव, जिस सडक पर चल कर राहुल गाँधी राजनीतिक रूप से कुछ हासिल करना चा रहें थे उसका असर कर्नाटक चुनावों में पूरी तरह से दिखा।

                    इस बार लगा कि अब राहुल गाँधी को सही सडक मिल चुकी है उन्हें अपने साथ चलने के लिए सिविल सोसाइटी के रूप में हमसफर भी मिल चुकें थे और अब राहुल गाँधी, उनका संगठन और सिविल सोसाइटी मिलकर मोदी के चुनावी रथ को अवश्य ही रोक देंगे।

                   कर्नाटक चुनाव खत्म हुआ यात्रा आगे बड़ी। कर्नाटक में अपनी जीत से लबरेज कांग्रेस ने अन्य राजनीती दलों को भी अपने साथ चलने का न्योता दिया। अब राहुल गाँधी के साथ इस सडक पर चलने वाले मुसाफिरों का कुनवा और भी बड़ा हुआ। आगे की यात्रा कैसे तय की जानी है उसके लिए रणनीति बनी, दो मोर्चे बने एक इंडिया गठबंधन जिसमें भाजपा विरोधी दलों को शामिल किया गया और दूसरा भारत जोड़ो अभियान जो मुख्यत सिविल सोसाइटी का नेटवर्क था। जिसका मुख्यत काम इंडिया गठबंधन के लिए राजनीतिक ज़मीन तैयार करना था। जैसे कि भाजपा के लिए आरएसएस करती है।

 

                  समय बीता यात्रा आगे बड़ी और अब यात्रा का अगला बड़ा पड़ाव था 2023 में तीन राज्यों MP, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव।

                तीनों राज्यों में चुनाव हूए लेकिन नातिजों के कारण यात्रा फिर से लड़खड़ाई क्योंकि तीनों राज्यों में भाजपा ने जीत दर्ज की। कांग्रेस सबसे ज्यादा MP के नातिजों से निराश हुयी क्योंकि की MP में 15 साल की शिवराज सरकार की एंटीइनकमवेंसी थी। पेपर पर पेपर लीक हो रहें थे जिसको लेकर युवाओं में खासा रोष था। किसानों की स्थिति भी कोई खास अच्छी नहीं थी। लेकिन इस सबके बाद भी कांग्रेस कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाई।

                  MP, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में एक बार फिर से कांग्रेस के सांगठनात्मक स्थिति को सबके सामने ला दिया। ये साफ देखा जा सकता था कि जिन मुद्दों को लेकर राहुल गाँधी इतने आक्रामक रहतें हैं जिन मुद्दों को वो भारतीय राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं उन मुद्दों से कांग्रेस के निचे के केडर से लेकर कांग्रेस के बड़े लीडरों तक किसी को कुछ खास लेना देना नहीं है।

                  गहलोत, कमलनाथ, बघेल और राहुल गाँधी में आपस में कितना कोऑर्डिनेशन था वो सबने देखा. और रही बात भारत जोड़ो अभियान की तो सिविल सोसाइटी ने आपस में कुछ मीटिंग करके थोड़ी बहुत औपचारिकता निभा कर खानापूर्ति कर ली। और अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गयी। सिविल सोसाइटी के ज्यादातर हिस्से में न वो इक्छा शक्ति दिखी, न वो ऊर्जा, जिसे देखकर ऐसा लगे की ज़मीन पर कुछ होता हुआ दिख रहा है जिसका फायदा इंडिया गठबंधन या कांग्रेस को मिले।

                     राहुल गाँधी और कांग्रेस की यात्रा जिस सडक पर चल रही थी इन राज्यों के चुनावी नातिजों ने उस सडक पर एक बड़े स्पीड ब्रेकर की तरह काम किया। कांग्रेस ने कर्नाटक से जो रफ़्तार पकड़ी थी वह फिर धीमी हुयी,उसे झटके लगे। यात्रा एक बार फिर से लड़खड़ाई।

                     खैर अब समय का पाया आगे बड़ा और वक्त था लोकसभा चुनाव का। तीन राज्यों के चुनावों के नातिजों के कारण आये स्पीड ब्रेकर की वजह से कांग्रेस की गाड़ी में जो डेंट लगा, उनकी जो गाड़ी पंचर हुयी उसे जैसे तैसे दुरुस्त किया गया। और इस बार संगठन में कुछ गंभीरता दिखी। अब हर बार की तरह अंदर की गुटबाजी इतना हावी नहीं हुयी जिससे पूरा का पूरा चुनाव खुद ही भाजपा को जितने के लिए थाली में सजा के दे दे। और इस सब का नतीजा भी देखने को मिला, भाजपा को 400 पार से पहले ही रोक दिया। 

                   कांग्रेस खुद 44 से बढ़कर 99 सीटों पर पहुंच गयी। अब भले ही भाजपा ने सत्ता में वापसी की हो लेकिन नैतिक रूप से ये इंडिया गठबंधन की ही जीत मानी गयी।

                  राहुल गाँधी को LoP चुन लिया गया। यात्रा का यह महत्वपूर्ण पड़ाव भी पार हुआ लेकिन इस बार कांग्रेस ने पहले के मुकाबले अच्छे से यह पड़ाव पार किया। अब ऐसा माना जाने लगा कि राहुल गाँधी और कांग्रेस की आगे की राह आसान हो चुकी है और अब आगे के पड़ाव कॉंग्रेस बड़ी आसानी से पार कर लेगी।

                  समय का पहिया फिर आगे बड़ा। फिर आया हरयाणा चुनाव। कांग्रेस की स्थिति काफी अच्छी मानी जा रही थी। किसान आंदोलन ने पहले से ही भाजपा विरोधी जमीन तैयार कर दी थी। उसके बाद अग्निवीर का मुद्दा, महिला पहलवानों का आंदोलन और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन। इस सब के कारण कांग्रेस के पास अच्छा खासा मूवमेंटम था। लेकिन हुआ एकदम उल्टा। हरयाणा चुनावों के परिणाम ने सबको चौका दिया।

                  एक बार फिर से कांग्रेस की लचर स्थिति सबके सामने आयी। जिन्होंने हरयाणा चुनावों को अंदर से देखा उन्हें पता है कि हुड़्डा ने ये चुनाव कैसे लड़ा और भाजपा ने कैसे। चुनावों के बाद फिर से पुराने ढर्रे पर EVM और चुनाव आयोग को लेकर सवाल उठाये गए। अपने संगठन की लचर स्थिति को पूरी तरह से दरकिनार करके पूरा ढीकरा एक बार फिर से दूसरों के सर मढ़ने की कोशिश हुयी।

                 यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दू कि मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि EVM में कोई छेड़छाड़ करना संभव नहीं है या चुनाव आयोग बहुत निष्पक्ष है। यह सारे सवाल बहुत ही जायज हैं।

                 आज भाजपा के पास सत्ता है, उनके पास सबसे ज्यादा पैसा है। बड़े कॉर्पोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया है जो दिन रात उनके प्रचार प्रसार में लगा रहता है। सरकारी मशीनरी का दूरउपयोग भी किया जाता है। ये सारे सवाल वास्तविक और जायज सवाल हैं।

                 लेकिन क्या कांग्रेस और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को इस सब का आभास पहले से नहीं था कि चुनाव जितने के लिए मोदी और भाजपा किसी भी स्थिति तक जाकर वो सारे हतकंडे अपनायगी जिससे चुनाव जीते जा सकें। क्या ये सारी स्थिति हाल ही में उत्पन्न हुयी स्थितियाँ हैं। भाजपा तो वो सब करती है और करेगी जिससे चुनाव जीता जा सकें मसलन evm से लेकर वोटर लिस्ट में छेड़छाड़।

                  चुनाव आयोग से लेकर बाकि तमाम सरकारी एजेंसियों का दूरउपयोग। लेकिन यहाँ फिर वही सवाल कि कांग्रेस के पास इसकी काठ क्या है? कांग्रेस के पास इससे निपटने की क्या ठोस रणनीति है? क्या कांग्रेस और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों का ये सलेक्टिव एप्रोच से कि जब नाजिते आपके फेवर में आये तब आप चुप रहें और जब आपके फेवर में नहीं तब आप थोड़ी देर के लिए हल्ला गुल्ला करके खुद के मन को शांत कर ले क्या इससे कुछ हासिल होगा? बस शायद थोड़ी देर के लिए मन की तसल्ली के आलावा।

                असल में अब भाजपा ने पुरे चुनाव के तौर तरीकों को बदल दिया है। जिसकी काठ किसी के पास भी फिलहाल तो नहीं दिखाई देती है। और रही बात EVM, चुनाव आयोग, सरकारी एजेंसी, कॉर्पोरेट का अंधाधुंध पैसे और मीडिया की तो इस सब के बाबजूद भी लड़ना तो कांग्रेस को पड़ेगा ही अगर कुछ हासिल करना है तो।

               और अगर बात करें भाजपा की तो भाजपा के पास इन सब के आलावा एक चीज और भी है और वो है स्वंय सेवकों का एक विशाल संगठन जिसकी पहुंच व प्रभाव आज समाज के हर हिस्से में हैं। जो समाज के बीच साल भर सक्रिय रहकर 70% हिंदुत्व  की जमीन पहले ही तैयार कर देता है। और यहीं सारा का सारा खेल फसा हुआ है। भाजपा के आलावा आज किसी और के पास ऐसा कोई संगठन नहीं है जो उन मुद्दों के प्रति ईमानदार हो जिन पर राहुल गाँधी या अन्य तमाम राजनीतिक दल राजनीति करना चा रहें हैं।

               और रही बात स्वयं राहुल गाँधी की तो वो भले ही आज सविधान को बचाने की बात कर रहें हैं और उनके साथ सिविल सोसाइटी का भी एक बड़ा हिस्सा जौरो शौरों लगा हुआ है लेकिन एक सच ये भी है कि इतने सालों तक कांग्रेस जब खुद सत्ता में थी तब कांग्रेस ने भी सविधान की ज्यादा चिंता नहीं की। इसके उलट कांग्रेस ने वो तमाम सविधान विरोधी काम किये जिसके लिए आज मोदी सरकार की आलोचना की जाती है।

               न कांग्रेस या उससे जुडा सेवादल ने और न ही बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने और न ही सिविल सोसाइटी ने इतने सालों में जनता के बीच जाकर उन सवैधनिक मूल्यों के प्रति जनता को ईमानदारी से शिक्षित किया, जिसके खत्म होने की चिंता आज कल दिन रात करते हैं। और उसके बरकस आरएसएस 1925 से लगातार अपने हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे पर लगा हुआ है पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ। उसके पास हजारों की संख्या में स्वयं सेवाकों एक संगठन है जिसके कार्यकर्त्ता हर रोज हिन्दू राष्ट्र का सपना लेकर उठते हैं और जनता के बीच जाकर मेहनत करते हैं। 

               आरएसएस ने इतने सालों में जनता के बीच पैठ बना कर कैडर बिल्डिंग पर जोर दिया, अपना खुदके इंस्टिट्यूटशन मेकिंग पर जोर दिया और वो सब कुछ किया जो असल में करना तो उस खेमे को था जिसे प्रगतिशील खेमा बोला जाता है लेकिन उसने ये सब नहीं किया।  और उसने किया क्या? खुद को समाज से काट कर पूरा का पूरा स्पेस आरएसएस को दे दिया और खुद को इतना अप्रासंगिक कर लिया।

                और रही बात राहुल गाँधी के उस सडक की तो, सडक भले ही उन्होंने सही चुनी है लेकिन मूल सवाल तो वही है कि चाहे इंडिया गठबंधन के उनके मुसाफिरों की बात हो या फिर उनकी पार्टी के ही अंदर मुसाफिरों की बात हो, कितने उनके साथ उस सडक पर ईमानदारी से चलेंगे। क्यों कि अभी तक अधिकांश तो मज़बूरी में ही साथ चलते हूए दिखाई दे रहें हैं न कि वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण। जिसे महाराष्ट्र, दिल्ली के चुनावों में एक बार फिर से साबित कर दिया।

                और अगर बात करें भारत जोड़ो अभियान की तो उस सडक पर सिविल सोसाइटी ईमानदारी के साथ भले ही चल लेगी।  लेकिन उसके साथ दिक्कत ये हैं कि वो अकेले ही हमसफर बन सकते हैं। ऐसी सम्भवना आज कम ही नजर आती है कि उनके साथ चलने से जनता का कोई हिस्सा भी उनके साथ हो लेगा।

                                                                         मानस भूषण स्वतंत्र पत्रकार

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