मानवाधिकार लोकतंत्र की बुनियाद है और ये बहुत ही ज़रूरी है-मेघवंशी

PUCL राजस्थान के नवनिर्वाचित राज्य अध्यक्ष भंवर मेघवंशी का साक्षात्कार

भंवर मेघवंशी
प्रश्न: आप हाल ही में PUCL के राज्य अध्यक्ष चुने गए हैं। आपके नज़रिये से किसी भी लोकतांत्रिक देश में मानवाधिकारों का क्या महत्व होता है?

भंवर मेघवंशी: मुझे लगता है कि लोकतंत्र में और खासकर भारत जैसे देश में, जहाँ एक बहुत बड़ी आबादी को मानव ही नहीं माना जाता है, वहां पर उनको मानव होने की एक गरिमा और जो उनके संविधान प्रदत्त अधिकार हैं, उसकी एक लड़ाई है और कोई भी लोकतंत्र तब ही एक अच्छा लोकतंत्र हो सकता है जब वहां पर मानवाधिकारों का एक महत्व हो, नहीं तो लोकतंत्र का कोई अर्थ ही नहीं बचेगा। मानवधिकार लोकतंत्र की बुनियाद है और ये बहुत ही जरुरी हैं।

प्रश्न: क्या आपको लगता है कि वर्तमान समय में मानवाधिकारों पर काम करने की ज़रूरत और भी ज़्यादा बढ़ गयी है। क्या आज सच मे मानवाधिकारो पर हमले बढ़े हैं ?

भंवर मेघवंशी: हाँ। क्यों कि सारा स्पेस छिना जा रहा है। आपकी बोलने की आजादी को प्रतिबंधित किया जा रहा है, तय किया जा रहा है कि आप क्या बोलेंगे, कैसे बोलेंगे।अभिव्यक्ति की आज़ादी ही ख़त्म हो रही है। तय किया जा रहा है कि आप क्या खाएंगे, क्या पहनेगे , किससे प्रेम करेंगे, किससे शादी करेंगे, कहाँ जायेंगे , क्या बिज़नेस करेंगे ये सब पर जब निगरानी रखी जा रही है। निजी जीवन में कोई और हस्तक्षेप कर रहा है और सभी संस्थाएं अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हैं। आज मानवाधिकार आयोग, पुलिस या न्याय पालिका की जिम्मेदारी है कि वह इन सब को बचाये, लेकिन बिलकुल इसके विपरीत हो रहा है। जिनको इन अधिकारों का संरक्षण करना है या क्रियान्वन करना है वही संस्थाएं अगर इन अधिकारों को ख़त्म कर रही है, तो फिर मानवाधिकारों के लिए काम करने की जिम्मेदारी तो ज्यादा हो ही जाती है। अब की विश्विद्यालयों का सारा का सारा जो स्पेस था जहाँ पर खुली सोच की आज़ादी थी, वो सारे संस्थान बदनाम कर दिए गए या बर्बाद कर दिए गए। उनमे इस तरह की चीजें ला दी गयी कि आज आप वहां बोल नहीं सकते। जितने भी मानवाधिकार रक्षा की संस्थाएं, एनजीओ थे, उन पर FCRA या इस तरह के नियम कानून के नाम पर सरकार इनपर नज़र बनाए हुए है। बहुत सारी जगहों पर आप देखेंगे कि विरोध करने का जो अधिकार है, जो विरोध करने का अधिकार है, उसके लिए जगह ही नहीं बची है। आप दिल्ली से लगाकर राजस्थान तक देखें कि आप धरना कहाँ लगाएंगे विरोध कहाँ करेंगे उसके लिए  सरकार आपको ऐसी कोई जगह नहीं देगी, जहाँ लोग आपको देख सके। आप को शहर के सबसे दूर के  किनारे पर जहाँ आपको चिड़ियाँ भी नहीं देखती है वहां पर आपको जगह दी जाएगी, तो विरोध किसे दिखाएंगे आप ? या आज जो आप जंतर मंतर पर परिस्थिति देखतें है कि वहां आज सरकार ने चारों तरफ बेरिकेड्स लगा दिए हैं, कड़ा पहरा है और उसके बीच आपको बोलना है तो सरकार जब आपके चारों तरफ से घेर के खड़ी हैं तो ऐसे में आप क्या बोलेंगे कैसे बोलेंगे। राज्य की निगरानी बढ़ गई है और ऐसी चीजों में निगरानी बढ गयी है जो स्टेट का काम नहीं है।  स्टेट का काम तो यह था कि लोगों को रोजी रोटी मिले, कपडा मकान मिले, लेकिन उसके बजाय स्टेट कुछ और ही कर रहा है। देश की एक बड़ी आबादी की नागरिकता को दोयम दर्जा देने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में इन चुनौतियों के बीच निश्चित रूप से मानवाधिकारों का काम करने की जरुरत और बढ़ जाती है।

प्रश्न: तो आप वर्तमान में सिविल सोसाइटी की भूमिका को कैसे देखते हैं ? उन्हें आज क्या करने की जरूरत है?

भंवर मेघवंशी: कई मामलों में सिविल सोसाइटी की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही है। एक बहुत ही लम्बा कार्यकाल रहा है जहाँ पर जितने भी मुलाधिकार संबंधी कानून आये, जैसे कि शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा का अधिकार, इसके आलावा भी ऐसी बहुत सारी नीतियां बनी हैं जिनमे एक बहुत बड़ा योगदान सिविल सोसाइटी का रहा है। कई सारे सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मामले रहे हैं जिनकी वजह से आज आप रेन बसेरे देखते हैं, आज आप मिडडे मील जैसी स्कीम देखते हैं , तो चाहे राजनैतिक हस्तक्षेप या न्यायपालिका के जरिये, सिविल सोसायटी का बड़ा योगदान रहा है। बहुत सारे ऐसे परियोजनाएं है, जहाँ आदिवासियों को उजाडा जा रहा थे, किसानो की जमीने ली जा रही थी, पर्यावरण को नुकसान पंहुचाया जा रहा था, ऐसे बहुत सी जगहों पर सिविल सोसाइटी प्रमुखता से खड़ी रही है। लेकिन अब एक ऐसा दौर आ चुका है जहाँ पर सत्ता निर्लज्जता के साथ सिविल सोसाइटी के जितने भी उपकर्म थे, उन्हें टूल किट के नाम पर बदनाम कर रही है। जैसी कि सिविल सोसाइटी मानव अधिकार नहीं बल्कि दानवअधिकार के पक्षधर लोग हैं, ये देश द्रोहियों के साथ हैं। तो जिस तरीके से सत्ता ने सिविल सोसाइटी का नया मतलब गढ़ दिया है जिस परिस्थिति में ढकेल दिया है जो माहौल सिविल सोसाइटी के खिलाफ बनाया गया है उसमे सिविल सोसाइटी को नए सिरे से खुद को गढ़ना होगा,क्यों कि सिविल सोसाइटी ने अपना जो भी विमर्श बनाया वो काफी पुराना हो चुका है। तीन चार दशक पहले उन्होंने जो चीजे तय की जो शब्दावली बनायीं वो पुरानी हो चुकी हैं।  90 के दशक बाद का जो दौर आया, बाबरी मज्जिद के बाद या नयी आर्थिक नीतियों और उदारवाद का युग, उसके बाद में जो विमर्श बना आज उसी नेरिटिव के साथ हम लोग बात कर रहें हैं।  आज सांप्रदायिकता और पूंजीवाद जो है उसमे सामंतवाद और ब्राह्मणवाद मिश्रित होकर कुछ नया ही रूप निकल गया है। तो ऐसी परिस्थति में सिविल सोसाइटी ने खुद को अपडेट किया हो, ऐसा मुझे कही दिखता नहीं है। सिविल सोसाइटी में आप को दो तरह के लोग दिखेंगे एक जो कि सीधे फील्ड पर काम करने वाले लोग या फिर एकदम हाई क्लास के लोग। आज सारी की सारी साम्प्रदायिकता का जो उभार आप उत्तर भारत में देखते हैं, वो सब हिंदी पट्टी में है। लेकिन उसके इलाज के रूप में सिर्फ उसकी चिंता की जा रही है, वो भी अंग्रेजी भाषा में। इसलिए ये जो सारी स्थिति है, उसमे मेरा मानना है कि सिविल सोसाइटी खुद के बारे में चिंतन मनन करे।  नयी भाषा का निर्माण करे व नए तरीके अपनाये। आज समाज में सिविल सोसाइटी जो अप्रासंगिक होती जा रही है, उसे बदलने के लिए सिविल सोसाइटी को अपने तौर तरीके बदलने पड़ेंगे, क्योंकि जो काम के तौर तरीके थे वो अब पुराने हो चुके हैं और इस सत्ता व मीडिया ने उसे काफी बदनाम भी कर दिया है। नए चुनौती के पुराने समाधान नहीं हो सकते हैं। तो सिविल सोसाइटी को अपडेट होने की जरुरत है और अपडेट का मेरा मतलब सिर्फ टेक्नोलॉजी के माईने में ही नहीं, अपितु जो चुनौती है, जिस भाषा में चुनौती है उस तरीके से अपडेट होना है। मेरा साफ मानना है कि आज हम हिन्दू राष्ट्र बन गए हैं। भले ही संविधान में धर्म निरपेक्ष शब्द लिखा हो लेकिन वास्तविकता में आज हम हिन्दू राष्ट्र में ही जी रहे हैं। तो हिन्दू राष्ट्र में सिविल सोसाइटी कैसे काम करेगी उसके लिए हमें तैयार होने की जरुरत है।

प्रश्न: भारत जोड़ो यात्रा के दौरान योगेन्द्र यादव ने कहा था कि आज जन आंदोलन और राजनीतिक दलों की ऊर्जा को एक साथ लाने की ज़रूरत है। तब ही भाजपा RSS को हराया जा सकता है। यात्रा के दौरान इसका प्रयास भी किया गया। इस पर आपकी क्या राय है?

भंवर मेघवंशी: योगेंद्र यादव जी की इस बात से मैं सैद्धांतिक रूप से सहमत हूँ क्यों कि आज जो चुनौती है वो अभूतपूर्व है। आज हमारे बीच में जो भी छोटी छोटी लड़ाइयां या जो भी छोटे छोटे मतभेद हैं, उन्हें फ़िलहाल स्थगित करने की जरुरत है। क्यों कि अगर हम आपस में ही लड़ते रहेंगे तो कब हम लोग आरएसएस भाजपा, जो की लोकतंत्र विरोधी ताकतें हैं, उन से लड़ेंगे। तो इनसे लड़ने के लिए हमें दो तरीके से काम करना पड़ेगा। पहले तो जमीन पर जो भी शोषित और उत्पीड़ित हैं उनकी एकता बनानी पड़ेगी। उसी चीज को ऊपर ले जाते हुए कि आप खाद्य सुरक्षा पर काम रहें हैं या विस्थापन के मुद्दे पर काम कर रहें है या कश्मीर के मुद्दें पर काम कर रहें है, सब के मुद्दों को महत्वपूर्ण  मानते हुए कोई कॉमन मिनिमन प्रोग्राम बनाना पड़ेगा। क्योंकि अगर हम एक नहीं हुए तो हम बच ही नहीं पाएंगे। इस लिए भारत जोड़ो यात्रा में मैं भी एक दिन के लिए शामिल हुया और, ये मानते हुए कि ये जो अभियान है आज उसकी सबसे बड़ी जरुरत है। इस लिए यात्रा के बाद जो भारत जोड़ो अभियान बना उसमें भी मैं एक हिस्सेदार हूं। हम हमारे नारों को, झंडों को, सब के अंतरों को बनाये रखे, लेकिन साथ ही साथ, एक बड़े उद्देश्य के लिए एकता बनाए रखें, यही आज की सबसे बड़ी जरुरत है।

प्रश्न: क्या भारत जोड़ो यात्रा में ये प्रयोग सफल होता दिखा?

भंवर मेघवंशी: हां, यात्रा में काफी लोग आये, आप देखेंगे कि काफी अन्य राजनैतिक दल शामिल हुए। सिविल सोसाइटी तो लगातार उसमे शामिल रही। यात्रा में ऐसे लोग भी थे जिनका राजनीतिक रूप से कांग्रेस से कोई जुड़ाव नहीं है, ज्यादातर तो उनमे से ऐसे थे जो जीवनभर कांग्रेस के विरोधी रहें हैं। लेकिन वो सब लोग साथ आये, क्योंकि साथ आना एक जरुरत है।  अब ये प्रयास कितना सफल या असफल रहा है, हमारे पास इसका कोई पैमाना नहीं है। लेकिन एक सन्देश तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक गया कि लोग एक होकर बोल सकते हैं। जो डर का एक माहौल बना हुया था कि लोग बोलेंगे ही नहीं, तो वो एक सन्देश था कि भले ही हम व्यक्तिगत रूप से डरे हुए हो सकते हैं लेकिन हजारों लाखों की तादाद में सड़क पर उतर कर अभी भी बोलने की हिम्मत रखते हैं।

प्रश्न: देश की सिविल सोसायटी का एक बहुत बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के समर्थन में आता दिख रहा है। लेकिन ये कहाँ तक सही होगा? क्योंकि मोदी सरकार की आलोचना जिन मुद्दों पर की जाती है वो सब तो कांग्रेस के कार्यकाल में भी घटा है। जैसे कि आपातकाल से लेकर 1984 या फिर आर्थिक उदारीकरण की नीतियां हो। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी अंतर क्या रहा ?

भंवर मेघवंशी: ये कहना जल्दबाजी होगी कि सिविल सोसाइटी कांग्रेस का सर्मथन कर रही है। क्योंकि कांग्रेस का समर्थन मुद्दों के आधार पर है। मैं जिस संगठन में हूँ (PUCL), वो तो बना ही आपातकाल के खिलाफ था, तो जो मतभेद और असहमति है, वो तो बनी हुई है। सिविल सोसाइटी का कांग्रेस के साथ कोई विलय नहीं हुआ है। आप देखें कि समय समय पर सिविल सोसाइटी अपनी बात को रखते हुए आई है, चाहे वो आपातकाल हो या 1984 के दंगे हुए हो, बाबरी मज्जिद या उससे पहले मंदिर के ताले खोलने का मामला हो, इन सभी मसलों में सिविल सोसाइटी ने हमेशा अपनी बात रखी है। लेकिन कई सारे दलों ने जब यूपीए बनाया तब वो बहुत सारे वो दल थे, जिनका इतिहास कांग्रेस के खिलाफ का रहा है।  उसमे कई ऐसी पार्टियां थी जो कांग्रेस से ही विरोध करके निकली थी या वामपंथी दल थे जिनका कांग्रेस के साथ बहुत ही प्रबल विरोध रहा है। तो वक्त के साथ रणनीतियां बदलनी चाहिए, कांग्रेस के अंधविरोध के चलते ऐसा भी न हो जाये कि हम अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की ही मदद कर बैठें। तो मुद्दों के साथ साथ, समय की जरुरत के आधार पर समर्थन देना जारी रखना चाहिए। जैसे कर्नाटक चुनाव में सिविल सोसाइटी ने बड़ी भूमिका निभाई, वहां उन्होंने ‘भाजपा को हराओ’ अभियान चलाया और इसका असर चुनावों में देखने को भी मिला। तो अभी सांप्रदायिक ताकतों को हराने की ही प्राथमिकता होनी चाहिए। और देखा जाये तो सिविल सोसाइटी ने हमेशा अपना अलग अस्तित्व बनाके रखा है। किसी भी राजनीतिक दल में वह समाहित नहीं हो सकती क्यों कि सिविल सोसाइटी के गुणसूत्रों में ही शामिल है प्रतिरोध करना और कोई भी राजनैतिक दल प्रतिरोध करने वालों को सहन नहीं कर सकता है।

प्रश्न: आपने आरएसएस की कार्यप्रणाली को क़रीब से देखा है। ऐसा क्या है कि आज आरएसएस भारतीय जन मानस पर इतना प्रभावशाली है, वहीं उसकी तुलना में तमाम प्रगतिशील ख़ेमे की पकड़ या प्रभाव जनता में बहुत कम होती जा रही है? 

भंवर मेघवंशी: देखिये ये केवल आरएसएस की बात नहीं है। इस देश का संघर्ष का 5 हजार साल का इतिहास रहा है। आप देखेंगे कि यहाँ पर ब्राह्मण और श्रमण की एक धारा है और वही संघर्ष बाद में जाकर निर्गुण और सगुण भक्ति आंदोलन में देखने को मिलता है। आज आरएसएस उसी ब्राह्मणवादी धारा का प्रतीक है। इसे देवासुर संग्राम से देखिये जहाँ जिनके पास संसाधन लूटने का अधिकार मिल गया वो देवता हो गए।  तो ये संघर्ष तो सतत है।और दूसरी बात ये है कि आज हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ पर दक्षिणपंथ का जो उभार है, वो वैश्विक है। तो ये भी नहीं मानना चाहिए कि आरएसएस आज कुछ बहुत ही सफल हो गया। ऑस्ट्रेलिया में तो आरएसएस नहीं है लेकिन वहां भी दक्षिणपंथ का उभार है और मूर्खता तो ट्रम्प के लोग भी करते है। तो अब ये सिर्फ भाषा का फर्क नहीं है, देश का फर्क नहीं है। वैश्विक स्तर पर क्या हो रहा है कि जब आप लोगों को रोजी रोटी कपडा माकन और एक गरिमापूर्ण जीवन लोगों को नहीं दे पाते हैं तब आप उस आबादी को इन सब चीजों में धकेलते हैं। और ये सारे ही मुद्दें जो आज आरएसएस उठा रहा है जिसको लोग मान रहे हैं कि आरएसएस सफल हो रहा है कि वो अचानक एक रात पहले सब जगह भगवा झंडा लगा देते हैं और किसी भी प्रतीक को लेकर वो इतनी बड़ी संख्या में रैली निकाल देते हैं और उसे एक सफलता के रूप में देखा जा रहा है लेकिन वो संख्या तो आपको पहचान की राजनीति करने वालों के पास भी देखने को मिल जाएगी। समाज में जो संघर्ष है उसके विरोध स्वरुप भी वो संख्या देखने को मिल जाती है तो मेरा मानना है कि केवल संख्या के आधार पर ही आरएसएस को सफल नहीं मानना चाहिए। आरएसएस केवल एक ही चीज में सफल है कि वो समाज के संघर्ष को अपने पक्ष में कर लेता हैं, वो वोटों को अपने पक्ष में कर लेते हैं। तो जो धर्म निरपेक्ष ताकतें हैं उन्हें वोट का गणित समझ नहीं आ रहा है।  आरएसएस के भीतर ही आप कई चीजें देख रहें हैं कि उनके महान त्यागी कहे जाने वाले प्रचारक किन किन चीजों में फंस रहें है। तो ये कोई सिर्फ आरएसएस की कार्यपद्धति का ही मामला नहीं है क्यों कि आरएसएस की कार्यपद्धति तो 1925 में भी वही थी ,1950 में भी वही थी, 1975 में भी वही थी। लेकिन जब इन्हें राजतंत्र व सत्ता का सहयोग मिल गया तब वो इस लेवल पर पहुंच पाए। क्यों कि एक तो उनका खुद का तंत्र तो था ही और अब सत्ता का तंत्र भी इन्हे मिल गया है। इस लिए वो जो चाहते थे वो सब सच प्रतीत होते हुए दिख रहा है। बाकि समाज के भीतर भी जाति की एक कुरीति है।  तो ये ये कोई नया नहीं है और न ही शाश्वत है।  सब कुछ के बाद भी ये लोग कर्नाटक चुनाव हार ही गए। कितना कुछ नहीं किया बली- बजरंगबली किया, केरला स्टोरी और न जाने क्या क्या।  प्रधानमंत्री एक वार्ड पंच के चुनाव की तरह एक एक वार्ड में प्रचार करते रहे , पूरा साल भर उन्होंने कर्नाटक में बिताया इस सब के बावजूद भी हार गए।

प्रश्न: बहुत से बुद्धिजीवियों का मानना है कि 2024 का चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण चुनाव है। ये भारत के भविष्य को तय करेगा। आपके लिए 2024 के चुनावों के क्या मायने हैं। और इस पूरे लगभग डेढ़ वर्ष के कार्यकाल में आप अपनी भूमिका को कैसे देखते हैं।

भंवर मेघवंशी: पहली बात तो ये कि लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण है। ये जो हम लोग अंतिम तिथि का मानक बना लेते हैं, तो क्या होता है कि ये आदत हमें तीन या साढ़े तीन साल तक तो सोने देती है और बाकि के बचे डेढ साल में हम लोग सोचते हैं कि अब हम क्रांति कर देंगे। मुझे लगता है कि निरंतर और सतत काम की जरुरत है। 2024 जीते या हारे, महत्वपूर्ण ये है कि क्या हम लोग निरंतर काम कर रहे हैं। चुनाव से ठीक पहले हम जनता के पास नारा लेकर जाते हैं तो जनता भी इन सब चीजों को समझती है। ये हमारी विफलता है कि हम जनता से इतना कट चुके हैं। हम और हमारा काम इतना कम हो गया है कि जनता हमसे कटा हुआ फील करती है और हम जनता से कटे हुए फील करते हैं। तो मैं कोई एक तारीख में विश्वास नहीं करता। हमको 2024 में भी संघर्ष करना है और हो सकता है कि हमें 2029 में भी संघर्ष करना पड़े। क्योंकि ये काम ऐसा है कि जब तक आप हैं तब तक आपको काम करते रहने की जरुरत है।  ये कोई ऐसा काम नहीं है कि सिर्फ एक बार वोट देकर आप घर पर बैठ जाएँ। जो भी सत्ता बनेगी, उसको जवाबदेह बनाये रखने के लिए, उसे लोकतान्त्रिक बनाये रखने के लिए लगातार काम करना पड़ेगा। अगर मैं अपनी भूमिका की बात करूं, तो मैं तो यही देखता हूँ कि लगातार लगे रहने की जरुरत है और सिर्फ मैं अपनी ही नहीं, बल्कि अपने साथियों की भूमिका भी यही देखता हूँ। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप कोई रोडमैप बनाके जनता के बीच निकल जाएँ और 2024 के नतीजे अगर हमारे अनुरूप नहीं आये तो हम फिर कोमा में चले जाएँ। तो हम लगातार काम करते रहे और उसके नतीजे अच्छे ही आयेंगे।

 प्रश्न: लोकसभा चुनावों से पहले राजस्थान में विधान सभा चुनाव भी हैं। तो यहाँ आपको क्या समीकरण दिख रहें हैं। क्या कांग्रेस यहाँ दुबारा सरकार बनाएगी? अगर ऐसा होता है, तो राष्ट्रीय राजनीति पर इसके क्या मायने होंगे ?

भंवर मेघवंशी: राजस्थान भौगोलिक रूप से एक बड़ा राज्य है। और क्यों कि कांग्रेस अभी कई चुनौतियां झेल रही है तो उसके लिए यह महत्वपूर्ण होगा ही कि वो सत्ता में वापसी करे। जिस तरह का काम यहाँ की सरकार ने किया उसकी जनहित नीतियां या चिकित्सा के क्षेत्र में देखें तो यही कहा जाना चाहिए कि इन्हे सत्ता में वापसी करनी चाहिए। अगर वो ऐसा नहीं कर पाते हैं तो ये जो राजनीतिक कार्यकर्ता का भरोसा है कि काम करने से वोट मिलता है, वो कही न कही कम हो जायेगा। फिर उसे लगेगा कि मुर्ख बनाके ही जब वोट मिलता है तो क्यों इतना काम करना ही क्यों? आप चिरंजीवी योजना भी लाओ, अन्नपूर्णा भी लाओ, पुरानी पेंशन योजना लागू करो, सिलीकोसिस पॉलिसी बनाओ, चाहे जो योजना बनाओ। तो ये जनता के बीच भी सोच का विषय है, कि जो उनके मुद्दों पर काम कर रहें है तो जनता उनको पुरुस्कृत करना चाहती है या तिरस्कृत करना चाहती है, ये जनता को तय करना है। यदि राजस्थान विधानसभा चुनाव सांप्रदायिक ताकतों को हराने वाला चुनाव बनता है तो इसका असर राष्ट्रव्यापी होगा। जनता में ये सन्देश जायेगा कि भाजपा को हराया जा सकता है।

प्रश्न: आप दलित और महिला आंदोलन से भी जुड़े हुए हैं और सरकार के कार्यकल में सबसे ज्यादा अत्याचार जो देखने को मिला है वो इन्ही दोनों समुदायों पर देखने को मिला है। आपको क्या लगता है कि गहलोत सरकार इन दोनों मोर्चों पर फेल रही है अथवा नहीं?

भंवर मेघवंशी: गहलोत सरकार हो या कोई भी सरकार, कार्यपालिका की अपनी एक प्रकृति है, समाज की अपनी एक प्रकृति है। कोई भी सरकार हो वो शोषण, अन्यान्य से 100 प्रतिशत मुक्त शासन देने का वादा तो कर सकती है, पर दे नहीं पाती है। जैसे जैसे समाज में चेतना बढ़ेगी तो दलितों को लगेगा कि उन्हें भी घोड़ी पर बैठना चाहिए, तो धोड़ी से उतारने वाली जो ताकते हैं, वो भी सक्रिय होंगी। महिलाएं जब अपना अधिकार मागेंगी तो वो लोग भी सक्रिय होंगे जो पितृसत्तात्मक सोच के लोग हैं। तो बात ये हैं कि सत्ता में कौन बैठते हैं उससे ज्यादा हमारी कार्यपालिका और समाज का जो ढांचा हैं वो मायने रखता है। ये ढांचा इस सत्ता में भी वैसा ही बना रहता है जैसा कि उस से पहले वाली सत्ता में बना रहता था। पुलिस का चरित्र बदलता है क्या? तो जब तक चरित्र नहीं बदलेगा तब तक बहुत ज्यादा कुछ बदलेगा भी नही। हमने वो दौर भी देखा, इनसे पहले वाला दौर भी देखा और अभी ये दौर देख रहे हैं। हम हर बार सिविल सोसाइटी की तरफ से यही बात दौहराते हैं कि अत्याचार की घटनाये बढ़ी हैं। मेरा मानना है कि ये किसी एक सरकार या किसी एक दौर का मसला ही नहीं है। जैसे जैसे समाज के शोषित तबके के बीच चेतना आएगी वैसे वैसे ये घटनाये और बढ़ेगी। तो बदलाव की तरफ जब भी समाज जायेगा तो उसके नतीजे भी झेलने पड़ेगे। ये इतना मूक तरीके से भी नहीं होने वाला है। वर्तमान सरकार अगर दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली घटनाओं पर लगाम नहीं लगा पा रही है तो इस मोर्चे पर सरकार को फेल ही माना जायेगा। क्यों कि कानून का क्रियान्वन तो सरकार को ही करना है। वर्तमान सरकार कि ये भी जिम्मेदारी है कि जो उनका वोट बैंक हैं जिन समुदायों ने इन्हे वोट किया उन्हें सुरक्षा दी जाये, सरकार केवल हवाबाजी में ही न रहे।  ये भी देखे कि जिन मुद्दों पर काम होना चाहिए था उन मुद्दों पर काम हुआ कि नहीं हुआ है।

प्रश्न: ये ख़तरा या अंदेशा भी जताया जा रहा है कि अगर भाजपा फिर से सत्ता में आती है तो शायद संविधान को ही ख़त्म कर दिया जाए। क्या आपको लगता है कि ये मुमकिन है। किसी भी दल के लिए इतना आसान होगा। अगर ऐसा होता है तो इसके देश और समाज के स्तर पर क्या परिणाम होंगे?

भंवर मेघवंशी: इन लोगों ने भारतीय संविधान को कभी माना ही नहीं। जब संविधान लागू हुआ, तब भी इन्होंने कहा था कि ये बाहर से लिए हुआ संविधान है इसमें भारतीयता नहीं है। लेकिन ये लोग चालाक लोग हैं। तो ये लोग कभी भी संविधान को ख़त्म करने की बात नहीं करेंगे। पर ये संविधान की गरिमा को इतना कम कर देंगे कि इसका होना या नहीं होना बराबर होगा। ये संविधान को एक पवित्र या धार्मिक किताब की तरह रखे रहेंगे और उसी की आड़ में सारे कुकर्म करते रहेंगे। हाँ ये जरूर है कि हो सकता है कि संविधान में जो समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष शब्द है उसे निकाल दे। तो ऐसा वो कर सकते हैं।

प्रश्न: आप दलित और सामाजिक न्याय के आंदोलन से भी जुड़े हुए हैं । दलित आंदोलन में मुख्यतः दो विमर्श देखने को मिलते हैं। एक हिस्सा है जो मानता है हमारी लड़ाई सिर्फ जाति उन्मूलन की है, जबकि एक दूसरा हिस्सा है जो मानता है कि हमें जाति और वर्ग दोनों को साथ में लेकर चलने की जरुरत है तो आप इस पुरे विमर्श को कैसे देखते हैं। 

भंवर मेघवंशी: डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि हमारे दो दुश्मन हैं, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद। तो आपको इन दोनो के खिलाफ समग्र लड़ाई लड़ने की जरुरत है। ये जो एकाकी लड़ाइयां हैं कि हम बाजार के खिलाफ नहीं लड़ेंगे, हम साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ेंगे या हम साम्प्रदायिकता के खिलाफ नहीं लड़ेंगे, हम केवल जाति के खिलाफ लड़ेंगे जबकि असलियत में ये सभी संघर्ष एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।  आपको पूंजीवाद के खिलाफ लड़ना पड़ेगा, आपको सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ना पड़ेगा और जाति व्यवस्था के खिलाफ भी लड़ना पड़ेगा। जाति उन्मूलन केवल मंच पर भाषण देने या समाज का एक हिस्से के चाहने से ही तो ख़त्म नही हो जाएगी। जब तक आप जाति के स्रोतों को चेलेंज नहीं करेंगे तब तक कैसे जाति ख़त्म हो जाएगी। जाति क्या है? संसाधनों के वितरण की व्यवस्था ही जाति है। ये समझ का ही फेर है कि हमारी लड़ाई जाति के खिलाफ है और पूंजी, संसाधन या इस तरह की भाषा में बात नहीं करेंगे। हो सकता है कि आपकी भाषा अलग हो, आप लेफ्ट की भाषा में बात नहीं करें, मत करिये। लेकिन आपको दुश्मन और दोस्त की शिनाख्त तो करनी ही पड़ेगी कि कौन दुश्मन और कौन दोस्त है। अम्बेडकर आंदोलन के कुछ हिस्से जो अभी तक ये शिनाख्त करने में असफल हुए है, उन्हें रूककर ये सोचने की जरुरत है कि अब तक उनके एकाकी आंदोलन ने क्या हासिल किया है अंततः ये स्तिथि है कि वो खुद ही अप्रासंगिक होते जा रहें हैं।

प्रश्र: आपने लेफ्ट का जिक्र किया। लेफ्ट पर जो आरोप लगता हैं कि उसने जाति के सवाल को उस प्रमुखता से एड्रेस नहीं किया। तो क्या अब आप को लगता है कि वामपंथी आंदोलन अपनी उस ऐतिहासिक गलती से कुछ सीख लेकर अपनी उस गलती को सुधार रहा है ?

भंवर मेघवंशी: यह तो दिखता ही है। बाबा साहेब के जीते जी तो लेफ्ट ने उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया, उनके विरोधी भी रहें और बाबा साहेब ने भी यहाँ के लेफ्ट पर तल्ख़ टिपण्णियां की। लेकिन अब ऐसा दिखता है कि बहुत सालों के बाद लेफ्ट ने ये माना कि जाति के सवाल को लेकर उनसे कहीं न कहीं चूक हुई है। और इस चूक के चलते उनके भीतर ऐसे कई प्लेटफॉर्म बने हैं, जहाँ खुल कर इस पर बात हो रही है। अब ये बातें प्रतीकों में भी दिखती है। अब लेफ्ट के कार्यक्रमों में बैनरों में बाबा साहेब दिखते हैं। जय भीम और लाल सलाम का नारा कई दिनों तक चला और अभी भी चल रहा हैं।  तो ये अच्छी बात है कि लेफ्ट ने इसको समझा और अब कई अम्बेडकवादी भी इसे समझ रहें हैं।  मैं पिछले दिनों हैदराबाद यूनिवर्सिटी में था, वहां पर जो छात्र संगठन है उसमे अम्बेडकर स्टूडेंट असोशिएशन, दलित स्टूडेंट यूनियन और SFI तीनों ने मिलकर चुनाव लड़ा। तो आज एक दूसरे को समझने की जरुरत है और जहाँ पर मतभेद हैं, उन पर बहस भी चले। तो दोनों पक्षों को एक दूसरे को समझने और साथ आने की जरुरत है और कुछ कुछ जगहों पर साथ आ भी रहें हैं क्यों कि ये समय ऐसा है कि दोनों को साथ आना ही पड़ेगा।

प्रश्न: राजस्थान में कुछ सालों में ये एक ये चीज देखने को मिली है कि दलित समुदायों से आने वाले युवा, खुद के स्तर पर ही संगठित होकर अपने अपने गावों या कस्बों में बहुत ही सक्रिय हैं। उनमे से कुछ बहुत ही रचनात्मक काम कर रहें हैं जैसे कोई पुस्तकालय चला रहा है, कुछ संविधान का प्रचार प्रसार कर रहें हैं, ऐसे बहुत से रचनात्मक काम कर रहें हैं, तो पहले तो इस इसे आप कैसे देखते हैं? क्या ये कहा जा सकता है कि अब ग्रामीण क्षेत्र के दलित समुदायों के युवा किसी के मोहताज नहीं हैं, वो खुद के स्तर पर संगठित होना जान गए हैं ? क्या एक सार्थक बदलाव हैं?

भंवर मेघवंशी: हाँ निश्चित रूप से। इसमें महत्वपूर्ण ये हैं की अब वो ये समझ चुके हैं कि बदलाव करना है और ये बदलाव कोई और आकर नहीं करेगा, इस लिए वो खुद के स्तर पर सार्थक पहल शुरू कर चुकें हैं। राजस्थान जैसा प्रदेश, जहाँ दलित चेतना बहुत बाद में आई, लेकिन आज आप ये देख सकते हैं कि छोटे से छोटे गावों में, जहाँ दलितों के पांच परिवार ही क्यों न हों, वहां भी आपको आज सविधान की एक किताब निश्चित रूप से मिल जाएगी। एक नीला झंडा मिलेगा, गांव में लोग अम्बेडकर जयंती पर एक जुलुस निकाल रहें होंगे। संवैधानिक अधिकार मंच बन रहें हैं या लाइब्रेरी मूवमेंट चल रहें हैं। गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए कार्यक्रम चलाये जा रहें हैं। मैं तो ये देखता हूं कि जब मैंने 25 साल पहले काम शुरू किया था, तब लोग जय भीम कहने पर भी डरते थे। आज बस हो या रेल या एयरपोर्ट, आपको लोग जय भीम बोलते हुए मिल जायेंगे। मैं ये भी देख रहा हूँ हूँ कि जो कास्ट के आयोजन थे उन आयोजनों के प्रतीक बदल गए हैं, झंडे बदल गए है। वहां आपको अब भगत सिंह कृत ‘ मैं नास्तिक क्यों हूँ’ भी मिल जाएगी और बाबा साहेब की जाति का उन्मूलन किताब भी।

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