प्रकाशित इंटर्व्यू CPI (माओवादी) के तत्कालीन पार्टी महासचिव गणपति का है। इसे “भारत के आसमान में लाल तारा” नामक किताब से लिया गया है जो यान मिर्डल द्वारा लिखित किताब RED STAR OVER INDIA का हिंदी अनुवाद है। हिंदी भाषा में इसे सेतु प्रकाशनी कोलकाता की ओर से अर्चना दास एवं सुब्रतो दास द्वारा प्रकाशित किया गया है।
ये इंटर्व्यू मूलतः 2010 में लिया गया था। तब से लेकर अब तक देश की राजनीतिक स्तिथि में परिवर्तन तो हुया ही है लेकिन उसके साथ साथ माओवादी आंदोलन में भी राजनीतिक और रणनीतिक रूप से परिवर्तन देखने को मिला है। लेकिन इंटर्व्यू पुराना होने के बावजूद इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि इसके द्वारा माओवादी आंदोलन को, उसकी रणनीति और राजनीति को तथा आंदोलन के विरोधाभासों को समझने में मदद मिलती है।
[पीपुल्स मार्च, वायस ऑफ द इंडियन रिवोल्यूशन, वॉल्यूम 11, नवम्बर 2, जनवरी-फरवरी 2010, पृष्ठ 3-13 पर प्रकाशित]

पूर्वी घाट के बहुत अन्दर जंगल में हम सीपीआई (माओवादी) के महासचिव गणपति ऊर्फ मुप्पला लक्ष्मण राव से मिले। हमारा स्वागत करने एवं हमें (खासकर यान मिर्डल को) इस ऊबड़-खाबड़ भूभाग में यात्रा के दौरान कोई विशेष कठिनाई हुई या नहीं, के सम्बन्ध में जानकारी लेने के बाद साक्षात्कार शुरू हुआ। उनके साक्षात्कार का सार आगे प्रस्तुत है। हमने साक्षात्कार को उसी रूप में रखा है, जिस रूप में इसे दिया गया, पढ़ा गया और उनके द्वारा अनुमोदित किया गया था। सिर्फ छोटा मोटा भाषाई परिवर्तन किया गया है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा फैलाये गये यह दुष्प्रचार कि, “माओवादियों ने सरकार की वार्ता की पेशकश को ठुकरा दिया है”, के मद्देनजर हम विशेषकर पाठकों का ध्यान महासचिव की ओर आकर्षित करना चाहते हैं, जिन्होंने संक्षिप्त रूप से वार्ता के सम्बन्ध में अपनी पार्टी के नजरिये को सामने रखा है। उन्होंने सचमुच हमसे कहा : ” अगर संक्षेप में कहा जाए तो पार्टी ने सरकार से किसी भी तरह की वार्ता के लिए इन मुख्य माँगों को रखा है 1. चौतरफा युद्ध वापस लेना होगा, 2. सभी तरह के जनवादी काम के लिए पार्टी एवं जन संगठनों के ऊपर से प्रतिबन्धों को हटाना होगा, 3. कॉमरेडों के गैरकानूनी गिरफ्तारी एवं उत्पीड़न बन्द करना होगा और उन्हें तत्काल रिहा करना होगा। अगर ये माँगें स्वीकार कर ली जाती हैं, तो जेल से रिहा किये गये नेतृत्व वार्ता में पार्टी की ओर से अगुआई और प्रतिनिधित्व करेंगे। हालाँकि, हम पूरे साक्षात्कार को उन लोगों के लिए जरूरी समझते हैं जो इस पार्टी, जिसे भारत सरकार अपने ‘आन्तरिक सुरक्षा के लिए चुनौती’ मानती है, के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं।
प्रश्न : वर्ग के परिप्रेक्ष्य में आप इस संघर्ष को भारत में चल रहे संघर्षों के साथ कैसे जोड़ना चाहते हैं? अध्यक्ष माओ ने 1935 में येनान तक लाँग मार्च के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर अपना आधार बनाया और उसका एक हिस्सा च्याङ काई शेक के साथ बनाया गया संयुक्त मोर्चा भी था। इस तरह संयुक्त मोर्चा चीन में मुख्य राष्ट्रीय ताकत बन गया। आप भारत में राष्ट्रीय ताकत बनने की कल्पना कैसे करते हैं?
उत्तर : चीन में जिन परिस्थितियों में येनान तक लाँग मार्च हुआ और एक आधार तैयार किया गया तथा इसके एक हिस्सा के बतौर च्याङ काई शेक के साथ राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया गया, भारत में मौजूदा समय में चल रही नव जनवादी क्रान्ति उससे भिन्न है। चीनी क्रान्ति 1949 में सम्पन्न हुई थी। उस समय से दुनिया में बहुत-से महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं। इन बदलावों में सबसे पहले समाजवादी खेमा का उदय एवं बाद में उसका पतन है; दूसरा, उपनिवेशवाद का टूटना एवं नव उपनिवेशवाद का उभरना है; तीसरा, पूरी दुनिया में सामान्य राजनीतिक व्यवस्था के रूप में तथाकथित संसदीय व्यवस्था का उभरना है; चौथा, वियतनाम, कम्पुचिया और लाओस में क्रान्ति की सफलता के बाद बहुत से देशों में कुछ उभारों एवं महत्वपूर्ण संघर्षों के बावजूद क्रान्तिकारी उभार में बहुत लम्बा अन्तराल रहा है।
अगर हम पूरी दुनिया के इतिहास को देखें तो मजदूर वर्ग के उदय के बाद वह पूँजीपति वर्ग एवं दूसरे अन्य प्रतिक्रियावादी वर्गों से टक्कर लेता आया है। कुछ समय के लिए मजदूर वर्ग ने पेरिस में उनसे सत्ता छीन लिया था। उसके बाद उसने रूस, चीन तथा कई यूरोपीय देशों में सत्ता छीनकर पूरी दुनिया को अचम्भित कर दिया। इस प्रक्षेप पथ में विश्व समाजवादी क्रान्ति में कई उतार-चढ़ाव आये, लेकिन इसके बावजूद संघर्ष जारी रहा। यह कभी तरंग की तरह आगे बढ़ा, कभी इसकी गति धीमी हुई, लेकिन यह कभी नहीं रुका। इसलिए किसी एक देश की क्रान्ति को ऐतिहासिक सन्दर्भ में ही देखना चाहिए।
मौजूदा स्थिति को सही तरह से समझने के लिए सबसे पहले मैं अपने इतिहास का संक्षिप्त ब्यौरा देना चाहूँगा। हमारी एकीकृत पार्टी सीपीआई (माओवादी) का भारत में दो माओवादी क्रान्तिकारी धाराओं सीपीआई (एम. एल.) पीपुल्स वार और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया के विलयन से 21 सितम्बर 2004 को गठन हुआ। हमारे महान प्रिय संस्थापक नेता एवं शिक्षक कॉमरेड चारू मजूमदार एवं कान्हाई चटर्जी ने सीपीआई के संशोधनवाद एवं सीपीएम के नव संशोधनवाद के खिलाफ अनवरत लम्बे समय तक वैचारिक व राजनीतिक संघर्ष का नेतृत्व किये।
इन संघर्षों ने संशोधनवादी पार्टियों की कमर तोड़ दी, जिसके फलस्वरूप भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में महत्वपूर्ण विकास हुआ। कॉमरेड चारू मजूमदार एवं अन्य सच्चे माओवादियों / क्रान्तिकारियों द्वारा सभी स्तर पर चलाये गये संघर्ष के फलस्वरूप वसन्त के बज्रनाद की तरह महान नक्सलबाड़ी किसान संघर्ष सामने आया। उसके बाद एक नया इतिहास शुरू हुआ। फिर तो हमारे दोनों महान नेता नक्सलबाड़ी के लाल बैनर को ऊपर उठाये रखे और नव जनवादी क्रान्ति की अगुआई किये । क्रान्तिकारी आन्दोलन की आग काफी तेजी से पूरे देश में अलग-अलग स्तर तक फैल गयी। इस क्रान्तिकारी दौर में बड़े ही कम समय में 22 अप्रैल 1969 को सीपीआई (एम.एल.) और 20 अक्टूबर 1969 को कान्हाई चटर्जी की अगुआई में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर का गठन हुआ। बहुत सारे ऐतिहासिक कारणों से हम उस समय एक एकीकृत माओवादी पार्टी निर्माण करने में असफल रहे। लेकिन मुख्य वैचारिक एवं राजनीतिक लाइन, क्रान्ति के रास्ते एवं रणनीति और उस समय हमारे सामने आ रहे बहुत सारे महत्वपूर्ण विषयों पर हमारा बुनियादी अवस्थान मोटे तौर पर समान था।
भारतीय शासक वर्ग ने नक्सलबाड़ी में सशस्त्र किसान बगावत से लेकर सभी क्रान्तिकारी आन्दोलनों पर बेलगाम आतंक का राज चलाया है। 1972 के अन्त में चारू मजूमदार की गिरफ्तारी एवं उनकी शहादत के समय तथा उसके पहले भी हम दुश्मन के हाथों बड़ी संख्या में नेतृत्व व कैडरों को खो चुके हैं। इन नुकसानों के चलते हमें पूरे देश में पीछे हटना पड़ा। चारू मजूमदार की शहादत के पहले ही सत्यनारायण सिंह की दक्षिणपंथी अवसरवादी लाइन के खिलाफ तीव्र आन्तरिक राजनीतिक एवं वैचारिक संघर्ष 1971 में ही शुरू हुआ। हमारी गम्भीर कार्यनीतिक गलतियाँ, राज्य का आतंक, प्रचंड नुकसान, उपयुक्त नेतृत्व का अभाव, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर चल रहे दो लाइनों के संघर्ष के नकारात्मक प्रभावों के कारण पार्टी कई गुटों में बँट गयी। जुलाई 1972 से 1980 तक हमारी पार्टी सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) बहुत सारे छोटे हिस्सों में बटी हुई थी, जिनका नेतृत्व दक्षिणपंथी एवं वामपंथी दुस्साहसी कर रहे थे और पूरी अव्यवस्था फैली हुई थी। दूसरी ओर माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के नेतृत्व में कांकसा में सशस्त्र किसान संघर्ष हुआ और अल्प अवधि में राजकीय आतंक के करण पीछे हटना पड़ा, लेकिन यह सतत रूप से बिहार और कुछ हद तक असम व त्रिपुरा में भी फैल गया ।
हमने एक सच्चे माओवादी पार्टी की बुनियादी विचारधारा एवं राजनीतिक लाइन को ग्रहण किया, व्यवहार से हमने सीखा, वर्ग संघर्ष में गम्भीरता से लगे रहे एवं देश तथा दुनिया के स्तर पर विचारधारात्मक एवं राजनीतिक सवालों पर सही अवस्थान लिया। इन अवस्थानों के कारण सीपीआई (मार्क्सवादी-लेननवादी) धारा से 1978 में सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पार्टी यूनिटी एवं 22 अप्रैल 1980 को सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वार अस्तित्व में आये। इन्हीं अवस्थानों के कारण माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर, पीपुल्स वार एवं पार्टी यूनिटी दलों ने देश के अलग-अलग हिस्सों, खासकर आन्ध्र प्रदेश एवं बिहार में सशस्त्र खेतिहर क्रान्तिकारी आन्दोलन का निर्माण किया। 1980 एवं • 1990 के दशकों में हम काफी हद तक पार्टी, क्रान्तिकारी जन-आन्दोलन एवं सशस्त्र संघर्ष को मजबूत किये। इसकी पराकाष्ठा महान एकता एवं सितम्बर 2004 में हमारी नयी पार्टी के गठन में हुई। 1977 से सच्ची माओवादी ताकतों का सीपीआई (एम.एल.) पीपुल्स वार, माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर तथा सीपीआई (एम.एल.) पार्टी यूनिटी में विलयन एवं सुदृढकरण हुआ एवं नयी पार्टी बनने के बाद अभी भी यह प्रक्रिया कुछ हद तक जारी है। लेकिन इस बीच अधिकांश वामपंथी एवं दक्षिणपंथी माओवादी गुट धीरे-धीरे विखंडित एवं गायब हो गये। कुछ दक्षिणपंथी माओवादी गुट अभी भी मौजूद हैं। हालाँकि वे कमजोर हैं। अभी भी माओवादी ताकत का एक छोटा हिस्सा मौजूद है, लेकिन वह लम्बे समय से संकीर्णतावाद की शिकार रहा है।
हमारा मत है कि सीपीआई एवं सीपीएम के अन्दर हमारा संघर्ष कॉमरेड माओ के प्रत्यक्ष नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में चलाया गया महान संघर्ष का अविभाज्य हिस्सा है। हमारी यह भी राय है कि सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) में माओ के समय से एवं उनकी मौत के बाद भी आन्तरिक संघर्ष प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर चला आन्तरिक संघर्ष से जुड़ा है। आधुनिक संशोधनवादी देङ गिरोह, जिसने चीन में सत्ता हथिया लिया, ने सिर्फ हमारी पार्टी एवं क्रान्ति, बल्कि विश्व क्रान्ति को भी नुकसान पहुँचाया है। हम माओ के विचारों पर अडिग रहे और देङ गिरोह तथा लिन प्याओ गिरोह का विरोध किये। हमारा अनुभव साफ दिखाता है कि भारतीय क्रान्ति अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के सकारात्मक एवं नकारात्मक विकास से बहुत प्रभावित हुई है। हम, भारत की माओवादी पार्टी लम्बे समय तक कष्टदायी राहों से गुजरे हैं। एकीकृत पार्टी के निर्माण के बाद क्रान्ति की प्रगति के लिए सर्वाधिक अनुकूल स्थिति बनी। हम 1969-1972 के बीच में यह अच्छा अवसर खो दिये। इस एकता का सबसे बड़ा उपहार भारतीय क्रान्ति के 35 साल के अनुभवों के सार-संकलन के रूप में मिला है।
इसने हमें रणनीति, कार्यनीति एवं अन्य नीतियों के सन्दर्भ में समृद्ध दस्तावेज दिया है। हमारे विलयन से दो भिन्न पार्टियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है और एक दूसरे से बहुत दूर अलग इलाकों या छोटे पॉकेटों में काम कर रही दो पार्टियों को एक अखिल भारतीय चरित्र मिला है। विलयन से पहले दोनों पार्टियों की केन्द्रीय समिति रहने बावजूद एक अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य को लेकर और केन्द्रीय ढांचों के संचालन में गम्भीर सीमा थी। लेकिन विलयन के बाद देश एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के असमान विकास के सम्बन्ध में हमारा अनुभव और समृद्ध हुआ है। अब हम बेहतर ढंग से अखिल भारतीय स्तर पर योजना बना सकते हैं। यह काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है, लेकिन कम से कम असुविधा दूर हुई है। भारत एवं अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में एक स्पष्टतर एवं समृद्ध लाइन उभरकर आयी है। इस सुविधा का अन्य पहलू है कि इसका अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव भी है। इसके पहले हमें इतना अधिक अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन देखने को नहीं मिलता था। लेकिन अभी यह नवजात है, फिर भी यह विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में हमें कई सारे नुकसान उठाने पड़े हैं। हमें सोचना है कि किस तरह हम इन नुकसानों से बच सकें। लेकिन हमारी केन्द्रीय समिति ने कहा है कि नुकसान से बचने के लिए हमें गलतियों से बचना होगा। साथ ही, साहस के साथ दुश्मन से मुकाबला करते हुए आगे बढ़ना होगा।
आज के समय में हमारे देश में दूसरी माओवादी पार्टियाँ अपने दक्षिणपंथी भटकाव एवं सीमित ताकत के कारण जनता को नेतृत्व देने की स्थिति में नहीं हैं। प्रगतिशील एवं जनवादी ताकतों के पास बुनियादी क्रान्तिकारी कार्यक्रम का अभाव है। उनका प्रभाव क्षेत्र भी बहुत सीमित है। इन सब सीमाओं के अलावा किसी पार्टी के पास आत्मरक्षा के लिए जनता का सशस्त्र बल नहीं है। मैं दोहरा रहा हूँ कि आज के समय में एक भी पार्टी या संगठन सभी क्रान्तिकारी जनवादी, प्रगतिशील देशभक्त ताकतों एवं जनता को गोलबन्द करने का केन्द्र बनने में समर्थ नहीं है।
इसलिए वर्तमान समय में हमारी पार्टी सभी क्रान्तिकारी, जनवादी, प्रगतिशील, देशभक्त ताकतों एवं जनता को गोलबन्द करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है क्योंकि हमारी पार्टी का एक अखिल भारतीय स्वरूप है, कई – राज्यों में अच्छा जुझारू राजनीतिक जनाधार है, कई राज्यों में दुश्मन के साथ हमारी जनमुक्ति गुरिल्ला सेना (पीएलजीए) लड़ रही है और दंडकारण्य, झारखंड एवं देश के कुछ अन्य भागों में नयी जनवादी सत्ता विकसित हो रही है। (दंडकारण्य मध्य भारत के पाँच राज्यों आन्ध्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं उड़ीसा के विशिष्टतः आदिवासी जिलों को मिलाकर बना है।) साम्राज्यवाद, सामन्तवाद तथा दलाल नौकरशाह पूँजीवाद के खिलाफ सभी क्रान्तिकारी, जनवादी, प्रगतिशील, देशभक्त ताकतों एवं उत्पीड़ित समुदाय, जिसमें उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ भी शामिल हैं, को एकताबद्ध करने के लिए हमारे पास स्पष्ट समझदारी है। हमारा नया जनवादी संयुक्त मोर्चा चार जनवादी वर्गों- मजदूर, किसान, शहरी पेट्टी बुर्जुआ एवं राष्ट्रीय पूँजीपति को मिलाकर बनता है। अगर हम मजबूत संयुक्त मोर्चे का निर्माण करना चाहते हैं तो उसे अवश्य ही मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूर, किसान संश्रय के आधार पर बनना है। और साथ ही उसे जन सेना द्वारा समर्थन एवं सुरक्षा भी देनी होगी।
जन सेना के बगैर जनता कुछ भी हासिल नहीं कर सकती, न बचा सकती है। इसलिए दुश्मन भारतीय जनता के क्रान्तिकारी एवं जनवादी केन्द्र को ध्वस्त करने के लक्ष्य से हमारे पार्टी नेतृत्व को खत्म करने के लिए गम्भीर प्रयास कर रहा है। स्थिति एक केन्द्र में गोलबन्द होने के लिए काफी परिपक्व हो चुकी है एवं क्रान्ति सीपीआई (माओवादी) की अगुआई में आगे बढ़ सकती है।
इसी के साथ ही विश्व आर्थिक संकट, भारतीय शासक वर्ग की जनविरोधी एवं साम्राज्यवाद परस्त नीतियाँ एवं राजकीय दमन जनता में आक्रोश पैदा कर रहे हैं, जिससे क्रान्ति की सम्भावना बढ़ रही है, क्योंकि आज देश में एकमात्र क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद है। चारू मजूमदार की शहादत के बाद से लम्बे समय तक भारत में एक एकल क्रान्तिकारी मंच का अभाव था। अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भी माओवादी आन्दोलन में बहुत सारी दरारें थीं। इस विशेष समय में हमारी पार्टी का जन्म जनता में नयी उम्मीद जगा रहा है।
मैं पुनः कहना चाहता हूँ कि हमारी पार्टी को भारत में तथाकथित संसदीय व्यवस्था के बारे में किसी तरह का भ्रम नहीं है। हम भारतीय राज्य की ताकत को जानते हैं। इसी के साथ हम एकता (सीपीआई-माओवादी के गठन) के बाद भी अपनी सीमा और गलतियों तथा अपने देश एवं अन्य देशों में माओवादी ताकतों की कमजोरी को भी स्पष्ट रूप से जानते हैं।
भारत में क्रान्ति की अनुकूल स्थिति, भारतीय समाज में दूर तक फैला तीखा वर्ग संघर्ष एवं सशस्त्र संघर्ष के विकास को दुश्मन उत्सुकता से देख रहा है और इन्हें काफी गम्भीरता से ले रहा है। इसलिए भारतीय शासक वर्ग, जो साम्राज्यवाद का दलाल भी है, इन संघर्षों को किसी तरह का मौका नहीं दे रहा है। विश्व क्रान्ति के सन्दर्भ में साम्राज्यवाद फिलीपीन्स, पेरू, नेपाल एवं भारत के अनुभवों को संकलित करते हुए भारत में उभर रहे तीखे वर्ग संघर्ष के विकास से सबसे अधिक चिन्तित है। मौजूदा वैश्विक स्थिति में अगर भारत में माओवादी क्रान्ति उच्च चरण में प्रवेश करती है तो वह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के लिए गम्भीर चुनौती होगी। इसलिए साम्राज्यवाद, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवाद इन स्थितियों को गम्भीरता से ले रहा है।
एक तरफ जहाँ क्रान्ति के लिए ज्यादा अनुकूल स्थितियाँ हैं, दूसरी ओर क्रान्ति का दमन करने के लिए दुश्मन पूरी तरह हमलावर है। इन स्थितियों में हमारी पूरी योजना अनुकूल स्थितियों का पूरी तरह से उपयोग करना एवं दुश्मन का प्रतिरोध करना होगा, जो हमारी आगामी योजना को निर्धारित करेगा।
इस सन्दर्भ में भारतीय क्रान्ति की राह में मौजूदा समय में सबसे मुख्य अवरोध दुश्मन द्वारा छेड़ा गया चौतरफा युद्ध है। यह युद्ध मुख्य रूप से माओवादी आन्दोलनों के खिलाफ है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका निशाना सभी क्रान्तिकारी, जनवादी, प्रगतिशील, देशभक्त आन्दोलनों पर है, साथ ही उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं सहित हमारे समाज के उत्पीड़ित समुदायों पर भी है। इस मोड़ पर इन सभी ताकतों को एक साथ मिलकर सोचना होगा कि ताकतवर दुश्मन से मुकाबला कैसे करेंगे एवं आगे बढ़ने के लिए कैसे एकताबद्ध होंगे?
चौतरफा युद्ध की समस्या को हम कैसे सुलझाएँगे? किसी भी समस्या का समाधान ढूँढने के लिए हमें समस्या के मूल कारण को पहचानना होगा। इसका समाधान हम गहराई से समस्या का विश्लेषण करके ही कर सकते हैं। पहला सवाल है : यह युद्ध क्यों? इसे कौन थोप रहा है? यह किसके ऊपर थोपा जा रहा है? यह युद्ध किस प्रकृति का है? यह कितने दिनों तक चलेगा? क्या हम इस युद्ध को स्वीकार कर सकते हैं या नहीं? इसका मुकाबला किसको करना चाहिए? युद्ध के प्रतिरोध का मकसद क्या है?
इस युद्ध का मकसद क्रान्ति को ध्वस्त करना है, जो धीरे-धीरे मौजूदा प्रतिक्रियाशील राजनीतिक सत्ता के विकल्प के रूप में उभर रहा है और लालगढ़ से लेकर सूरजागढ़ तक के आदिवासी बहुल क्षेत्र की खनिज सम्पदा एवं प्राकृतिक सम्पदाओं को लूटना है। उन्होंने यह युद्ध माओवादी क्रान्तिकारियों, विशाल जंगल इलाके के आदिवासियों एवं स्थानीय जनता, मजदूर, किसान, शहरी मध्यम वर्ग, छोटे एवं मझोले पूँजीपति वर्ग; दलितों, महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों, जनवादी संगठनों, प्रगतिशील एवं देशभक्त ताकतों, जो आबादी के 95 प्रतिशत से अधिक हैं, पर थोपा है। क्योंकि ये सभी इस युद्ध का विरोध कर रहे हैं। यह पूरी तरह से एक अन्यायपूर्ण युद्ध है। यह युद्ध दलाल नौकरशाह पूँजीपतियों, देश की सामन्ती ताकतों और साम्राज्यवादी खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने थोपा है। ये लोग वास्तविक लुटेरे, भ्रष्ट, जमाखोर, घोटालेबाज, हत्यारे, षड्यंत्रकारी, उत्पीड़क, निरंकुश, फासिस्टं, घोर प्रतिक्रियावादी एवं एक नम्बर के गद्दार हैं। ये प्रतिक्रियावादी इस युद्ध को लम्बे समय तक चलाना चाहते हैं, जब तक उनका मकसद पूरा नहीं हो जाता।
शासकों द्वारा थोपे गये इस अन्यायपूर्ण युद्ध को कोई भी माओवादी, जनवादी, प्रगतिशील, देशप्रेमी एवं आम जनता स्वीकार नहीं करेगी। जनता यह अन्यायपूर्ण, क्रूर अमानवीय एवं विश्वासघाती युद्ध का पूरी तरह से विरोध करेगी। पूरे भारत एवं विश्व की जनता इस युद्ध को ललकारेगी। यह अन्यायपूर्ण युद्ध पूरी तरह जनता एवं देश के हित के खिलाफ है। जनता एकताबद्ध होगी और इस अन्यायपूर्ण युद्ध का मुकाबला न्यायपूर्ण युद्ध द्वारा करेगी। जनता कभी भी किसी तरह के अन्यायपूर्ण युद्ध को बर्दाश्त नहीं करती है। वर्ग समाज के पूरे इतिहास में हमेशा के लिए कभी भी किसी अन्यायपूर्ण युद्ध को जनता ने बर्दाश्त नहीं किया है, बल्कि वह सभी अन्यायपूर्ण युद्धों के खिलाफ अपने खून की कीमत चुकाकर लड़ी है और आखिरकार जीत हासिल की है। इस न्यायपूर्ण युद्ध का तात्कालिक मकसद इस अन्यायपूर्ण युद्ध को पूरी तरह पराजित करना है। उसके बाद मौजूदा सामाजिक स्थिति, जो अन्यायपूर्ण युद्ध की गुंजाइश पैदा करता है, को बदलने की ओर बढ़ना है। अगर हम देश की राजनीतिक स्थिति पर गौर करेंगे तो पता चलेगा कि यह अमानवीय चौतरफा युद्ध विशाल जनता को एकताबद्ध करने के लिए भारी अवसर पैदा कर रहा है और निश्चित रूप से यह युद्ध शासकों के लिए विपरीत परिणाम लाएगा।
15 अगस्त 1947 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था, रक्षा, आन्तरिक सुरक्षा, राजनीति, संस्कृति एवं पूरे राज्य का साम्राज्यवाद, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ इतना एकीकरण कभी हमने नहीं देखा।
आणुविक समझौता, बहुत सारे रक्षा सौदे, 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर आतंकवादी हमले के बाद प्रकट रूप से हस्तक्षेप, केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम का अमेरिका दौरा एवं आन्तरिक सुरक्षा पर महत्वपूर्ण समझौता इसके प्रकट दृष्टान्त हैं। इस महत्वपूर्ण बदलाव के कारण भारतीय विस्तारवाद दक्षिण एशिया में अहम भूमिका निभा रहा है। साम्राज्यवाद एवं भारतीय जनता के बीच बुनियादी अन्तरविरोध और भी तीखा हुआ है। यह साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीय जनता को एकताबद्ध करने एवं युद्ध लड़ने का बहुत बड़ा अवसर प्रदान करेगा। कई दशकों से पूरा कश्मीर एवं उत्तर पूर्व की जनता सेना एवं अर्धसैनिक बलों के प्रभुत्व के अधीन है। दूसरी ओर आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर सेना की भूमिका के कारण आन्तरिक सुरक्षा में भारी बदलाव आया है। ऐतिहासिक तेलंगाना सशस्त्र खेतिहर क्रान्ति के समय (1946 से 1952 तक) एवं नक्सलबाड़ी किसान बगावत के बाद पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्रों में कुछ समय के लिए (1971 में) भारतीय सेना को लगाया गया था। लेकिन आज दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय सेना को पुनर्गठित किया जा रहा है। आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध के मातहत तीन साल पहले भारतीय सेना ने आन्तरिक सुरक्षा की समस्या एवं दूसरे देशों के साथ आधुनिक युद्ध की जरूरतों के लिए अपनी नयी नीति ‘Doctrine of Sub-Conventional Warfare’ की घोषणा पूरा की है। इस पुनर्गठित योजना के अनुसार भारतीय सेना काफी संख्या में अपने बलों को बहुत दूर तक फैले बागियों के विरुद्ध अभियान की जरूरत को करने के लिए प्रशिक्षण दे रही है। अब आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर देश के बहुत बड़े इलाके में भारतीय सेना को अपने ही देश की जनता के खिलाफ लगाया गया है। अगर सचमुच यह जनता की सरकार है तो यह कैसे अपने देश की सेना को अपनी जनता के खिलाफ उतार सकती है? दरअसल लोकतांत्रिक वेश में भारत में तानाशाही एवं फासीवादी राज चल रहा है। जनता के जनवादी एवं क्रान्तिकारी संघर्षों से जो कुछ हासिल हुआ है, उसे फासीवादी चुनौती दे रहे हैं। लेकिन यह जनता की विशाल संख्या को एकताबद्ध होने एवं किसी भी तरह के अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिरोध करने के लिए मजबूर करेगा। यह शासक वर्ग की इच्छा के विरुद्ध जाएगा।
हमें हाल के आर्थिक संकट, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादी एवं दूसरे साम्राज्यवादी देशों के संकट पर विचार करना चाहिए। कुछ पहलुओं में यह संकट 1930 की महामंदी से भी अधिक गम्भीर है। साम्राज्यवाद इस संकट से निकलने के लिए अपने-अपने देश के मजदूर वर्ग एवं मध्यम वर्ग पर शोषण को और बढ़ाएगा तथा तीसरी दुनिया से लूटपाट में इजाफा करेगा । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ एवं उसके सहयोगी दलाल नौकरशाह पूँजीवाद, बंगाल में लालगढ़ से महाराष्ट्र के सूरजागढ़ के विशाल क्षेत्रों में संकेन्द्रित हैं। इस समृद्ध इलाके, मुख्य रूप से आदिवासी इलाके का दोहन करने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों सैकड़ों एमओयू (Memorandum of Understanding) पर दस्तखत किये हैं।
इलाके का अन्धाधुन्ध लूटपाट पर्यावरण को विनष्ट करेगा और पारिस्थितिकी में दीर्घकालिक बदलाव ले आएगा। भारतीय समाज के सबसे उत्पीड़ित तबके आदिवासी एवं स्थानीय जनता के सामने बड़ा खतरा है। दुनिया में सम्भवतः पहली बार आदिम जाति के इतनी विशाल आबादी वाले लोगों के सामने इतना बड़ा खतरा आया है। एक नयी स्थिति पैदा की जा रही है। अतः इस उत्पीड़ित तबके को ठोस कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ना होगा। यह स्पष्ट है कि इन लोगों की मुक्ति के बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते, न ही क्रान्ति सफल हो सकती है। हमारी पार्टी इस समस्या पर काम कर रही है और ज्यादा से ज्यादा लोग एकताबद्ध होंगे और जनता के मुख्य दुश्मनों साम्राज्यवादियों, दलाल — नौकरशाह पूँजीपतियों, सामन्तों एवं फासीवादी राज्य के खिलाफ संघर्ष करेंगे। उत्तर पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ एवं कश्मीरी जनता कई दशकों से मुक्ति के लिए लड़ रही हैं। वे कुछ हद तक आगे बढ़ी हैं और अभूतपूर्व तकलीफों का सामना की हैं। लेकिन अभी तक उन्हें कामयाबी नहीं मिली है। और उनकी लड़ाई आज भी जारी है। हमें गुरिल्ला युद्ध में कुछ कामयाबी मिली है, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को माओवादियों से कुछ उम्मीद जगी है। एक नयी आशा सामने आयी है कि अगर माओवादी क्रान्ति आगे बढ़ती है तो वह राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम को तेज करेगी। इस सन्दर्भ में पार्टी ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की रोशनी में हमेशा सभी उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय का अधिकार, जिसमें अलग होने का अधिकार भी शामिल है, का अवस्थान लिया है। उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ हमारी इस नीति को जानती हैं। उनकी लड़ाई को मजबूत करने की जरूरत है। इसका उपयोग उनके साथ एका करने एवं संयुक्त मोर्चा बनाने में करना चाहिए।
उदाहरण स्वरूप जब छत्तीसगढ़ में नागा बलों और मिजो बटालियन को लगाया गया था, तब नागालैंड एवं मिजोरम में सेना के परिवार के सदस्यों एवं अन्य जनवादी ताकतों ने इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा कि वह जनता के खिलाफ युद्ध का समर्थन नहीं करते हैं, वह अपने बच्चों को दूसरों का दमन करने के लिए नहीं भेजना चाहते हैं। रणनीतिक रूप से राष्ट्रीयताओं की जनता को, मजदूर, किसान, मध्यम वर्ग एवं राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग को, एक करने के लिए बेहतर स्थिति बन रही है।
सभी जगहों पर जनता पर हो रहा दमन शासकों के मंसूबे के विरुद्ध ही जाएगा। समग्रता में दुश्मन ने आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर एवं माओवादी खतरे की आड़ में जनता के खिलाफ चौतरफा युद्ध का एलान किया है। हम तुलनात्मक रूप से देश के बहुत सारे ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत हैं। लेकिन अभी हमारे बलकमजोर हैं। शहरी क्षेत्रों में हम कमजोर हैं, मजदूर तथा शहरी पेट्टी बुर्जुआ के बीच भी हम कमजोर हैं। जन सेना भी कमजोर है और उसके हथियार दुश्मन की तुलना में निम्न स्तर के हैं। सामान्य रूप से यह सब हमारी कमजोरी है। जन सेना एवं शहरी क्षेत्रों में काम को मजबूत बनाना सबसे महत्वपूर्ण तात्कालिक कामों में शामिल हैं।
हमारी पार्टी की एकता कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से रणनीतिक योजना की घोषणा की है और इन विषयों में स्थिति को सुधारने के लिए समृद्ध दस्तावेज तैयार किया है। दूसरी ओर सामाजिक अन्तरविरोध तेजी से तीखे होते जा रहे हैं। उपरोक्त तात्कालिक कार्यों के अलावा पार्टी अधिक से अधिक लोगों को एकताबद्ध करने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। अगर हम इसमें कामयाब होते हैं तो हम क्रान्ति में एक छलांग ला पाएँगे। हम संयुक्त मोर्चा के उभरने के सम्बन्ध में आशावादी हैं। इस नयी स्थिति में यह भारतीय क्रान्ति के सबसे महत्वपूर्ण कामों में से एक है। हम दृढ़ता से महसूस करते हैं कि यह सिर्फ हमारा काम नहीं है, बल्कि यह सभी क्रान्तिकारी, जनवादी और प्रगतिशील तबकों का काम है।
इसके साथ ही दुश्मन के बीच अन्तरविरोध तीखे होते जा रहे हैं। यह नन्दीग्राम में दिखा है और कुछ हद तक लालगढ़ संघर्ष में भी दिखा है। हम इस अन्तरविरोध का इस्तेमाल कर रहे हैं एवं हमें वर्ग संघर्ष को आगे ले जाने के लिए सभी जगह इसका इस्तेमाल करना चाहिए। हम दूसरे जनवादी संगठनों एवं लोगों तथा कुछ हद तक विशेष मुद्दों पर शासक वर्ग के कुछ व्यक्तियों के साथ जनता के मुद्दे पर कार्यनीतिक संयुक्त मोर्चा बनाकर काम कर रहे हैं। हमें और सभी संघर्षरत पार्टियाँ, संगठनों एवं लोगों को आपसी एकता एवं संयुक्त मोर्चा बनाने के महत्व को समझना होगा। हम जनता की एकता एवं रणनीतिक तथा कार्यनीतिक संयुक्त मोर्चा बनाने पर बल दे रहे हैं। यह रणनीतिक संयुक्त मोर्चा साम्राज्यवाद, सामन्तवाद एवं दलाल नौकरशाह पूँजीवाद के खिलाफ उत्पीड़ित जनता का मोर्चा होगा। साम्राज्यवाद एवं भारतीय जनता के बीच अन्तरविरोध तीखा होने बावजूद हमारे देश पर किसी साम्राज्यवादी ताकत ने हमला नहीं किया है, न ही किसी दूसरे तरीके से हमारा देश किसी का सीधा उपनिवेश बना है। इसलिए हमारी आज की स्थिति 1930 के मध्य की चीन की स्थिति से भिन्न है, जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जापानी साम्राज्यवाद के खिलाफ साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे का निर्माण किया था।

प्रश्न: संयुक्त मोर्चा बनाने में आने वाली दिक्कतों को पार्टी किस तरह से हल करेगी? आज की स्थिति में वस्तुगत स्थिति के अलावा पार्टी आत्मगत स्थिति के बारे में क्या सोचती है?
उत्तर : कॉमरेडों, माओवादी पार्टी देश की जनता के लिए केन्द्र बनना चाहेगी और जनता का विकास हमारी आकांक्षा का प्रतिनिधि होगा। हम 95 प्रतिशत से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता को एकताबद्ध करने के लिए अधिक वस्तुगत स्थिति मौजूद है। साथ ही, जनता भी ऐसी पार्टी को चाहती है जो उनके हित की सेवा करे। हम बुर्जुआ एवं शोषक व्यवस्था के भीतर आंशिक सुधार के लिए काम नहीं कर रहे हैं। हम जनता की सामाजिक-आर्थिक माँगों के लिए लड़ रहे हैं, और साथ ही मौजूदा सामाजिक ढाँचे में गुणात्मक बदलाव के लिए लड़ रहे हैं। अगर हम जनता को स्पष्ट रूप से यह समझा पाने में सफल होते हैं तो हम उन्हें युद्ध में गोलबन्द एवं संगठित करने में कामयाब होंगे और युद्ध जीतेंगे।
दीर्घकालिक जन युद्ध या राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध का अनुभव दिखाता है कि बगैर जनाधार के, सेना, मुक्तांचल एवं मजबूत संयुक्त मोर्चा का निर्माण करने में कामयाबी हासिल नहीं हुई है। क्रान्तिकारी संघर्ष, सेना का गठन एवं आधार क्षेत्र के निर्माण के दौर में हम बहुत सारे कार्यनीतिक संयुक्त मोर्चों एवं यहाँ तक कि कमजोर रणनीतिक मोर्चे का निर्माण भी कर सकते हैं। हमें जनता को उनके दुश्मन के खिलाफ लड़ाई में संगठित करने, अपनी सेना बनाने, मजबूत आधार क्षेत्र निर्मित करने और मजबूत संयुक्त मोर्चे के निर्माण की ओर बढ़ने के लिए कठोर प्रयास करने होंगे।
प्रश्न: दोस्तों को जीतने का रास्ता एवं तरीका क्या है?
उत्तर : अधिक से अधिक सम्भव एकता के लिए हम नव जनवादी क्रान्ति के मित्रों के प्रति संकीर्णतावादी नजरिया नहीं अपना सकते। आज के समय में दुश्मन के खिलाफ बहुत सारी शक्तियाँ खड़ी हैं। हमें उन्हें विकसित होने देना है। कुछ मुद्दों पर संयुक्त मोर्चा में उत्पीड़क वर्ग के प्रतिनिधि भी रहेंगे। हम उनसे अपनी पाँत में शामिल होने की उम्मीद नहीं कर सकते। इसके लिए हमारे सामने लम्बा रास्ता है। इस समय हमें अपने रणनीतिक लक्ष्य को दृढ़ता के साथ पकड़े रखना है। इसके लिए हमें कार्यनीति में लचीलापन अपना होगा।
स्पष्ट रूप से दो तरह के संयुक्त मोर्चे हैं। एक जनता के बीच एवं दूसरा जनता एवं दुश्मन (एक तबका/समूह/दुश्मन वर्ग के व्यक्ति) के बीच। दुश्मन के बीच के अन्तरविरोध को हमें इस्तेमाल करना होगा। कुछ मुद्दों पर कुछ हद तक इसकी गुंजाइश है। हम इसे क्रान्ति का अप्रत्यक्ष आरक्षित क्षेत्र कहते हैं। इसे सतर्कता से इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर हमें यह स्पष्ट समझदारी है कि यह हमारा वर्गीय सहयोगी नहीं है तो हम दक्षिणपंथी भटकाव के शिकार नहीं होंगे। क्रान्ति की सफलता के लिए हमें इस तरह के संयुक्त मोर्चे की जरूरत है। भारतीय वामपंथ, विशेष तौर पर सीपीआई और सीपीएम की तरह पूँजीपतियों का पिछलग्गू बन गया और पतित हो गया।
अन्तिम पहलू यह है कि सभी वर्गों के अलग-अलग वर्गीय हित एवं विश्व दृष्टिकोण हैं। इस अर्थ में संयुक्त मोर्चा संघर्ष का एक मोर्चा भी है। लेकिन मौटे तौर पर यह संघर्ष मुख्य दुश्मन के खिलाफ है। ऐसे में संघर्ष अप्रधान हो जाता है और एकता प्रधान हो जाती है। वास्तविक मुद्दा है – कैसे इस संघर्ष एवं 1 एकता को संतुलित किया जाय और कारगर तरीके से इसका उपयोग किया जाए? दुश्मन वर्ग कभी भी जनता के पक्ष में नहीं होगा। सत्ता पर कब्जा करने के बाद भी समाज में लम्बे समय तक संघर्ष जारी रहेगा। इसलिए संयुक्त मार्चा एवं संघर्ष को लगातार साथ-साथ चलना चाहिए। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण काम है जनता के वैचारिक एवं राजनीतिक शिक्षण पर ध्यान केन्द्रित करना। अगर हम इसे सफलता पूर्वक कर पाते हैं तो हम अन्य तबकों को भी जीत सकते हैं और उन्हें अपनी पाँत में शामिल होने दे सकते हैं। जनता इन पार्टियों में भ्रष्ट नेतृत्व के मातहत है। अगर हम लोगों को वैचारिक एवं राजनीतिक संघर्ष के जरिए जीत पाये तो हम इनके प्राथमिक सदस्यों को अपने साथ ला सकते हैं। क्रान्ति में महत्वपूर्ण सफलता इस प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। यही काम करते हुए चीन एवं नेपाल की पार्टी तीव्र गति से आगे बढ़ी। राजनीतिक एवं वैचारिक रूप से पार्टी एवं सेना इस तरह फैल सकते हैं। संयुक्त मोर्चा एवं राजनीतिक तथा वैचारिक संघर्ष के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को सही तरह देखने से हम मजबूत संयुक्त मोर्चे का गठन करने में सफल होंगे और दुश्मन को, खासकर मुख्य दुश्मन को अलग-थलग कर सकते हैं।
वैज्ञानिक सिद्धान्त के रूप में मार्क्सवाद ऐतिहासिक आधार पर शिक्षण से हम पूँजीपति वर्ग के प्रभावों को वैचारिक रूप से दूर कर सकते हैं। ऐसा करके हम लोगों को जीत सकते हैं। यहाँ तक कि उनके विश्व दृष्टिकोण को बदलकर मार्क्सवादी नजरिया दे सकते हैं।
हमने संयुक्त मोर्चा के सम्बन्ध में अपनी बुनियादी समझ पर बात की है। आत्मगत स्थिति के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी एवं जनवादी लोग जनता के प्रति अनुकूल रूप से जुड़े हैं। लेकिन इसे व्यावहारिक रूप से उपयोगी बनाना है। दूसरा सवाल क्रूर दमन का है। हम कैसे इस स्थिति में यह सब हासिल कर सकते हैं? हम जानते हैं कि हम अभी तक एक छोटी पार्टी हैं। लेकिन हमारी असली ताकत मार्क्सवादी विचारधारा, उन वर्गों में, जिनका यह प्रतिनिधित्व करती है, इसकी लाइन एवं नीतियों में है। संयुक्त मोर्चा बनाने का तरीका क्या होगा? अगर हम जनता के हित को ध्यान में रखेंगे और जन दिशा एवं वर्ग दिशा को सही तरह से उपयोग करते रहेंगे तो हम निश्चित रूप से सफल होंगे और एक छोटी ताकत से राष्ट्रीय स्तर की ताकत में विकसित हो जाएँगे।

प्रश्न: लेकिन व्यवहार में आप यह सब कैसे करते हैं? : मैंने ताकत के बारे में बात किया, जबकि हमारी ताकत बहुत सीमित है।
उत्तर: मैंने वर्णन किया कि हमारी असली ताकत कहाँ है। लेकिन लड़ाई करने के लिए शारीरिक ताकत की भी जरूरत होती है। हमें शक्तिशाली सेना, मजबूत जनाधार एवं मजबूत पार्टी चाहिए। व्यावहारिक दृष्टि से यह तीनों ही आवश्यक हैं। अगर यह नहीं हो तो हम सैद्धान्तिक रूप से चाहे जितना भी मजबूत हों, यह हमें पराजय की ओर ले जाएगा। इसलिए हमें विकसित होना है। इसके लिए दुश्मन के दमन का मुकाबला करते हुए हमें सही कार्यनीति अपनानी होगी। हमारे मूल्यांकन में दुश्मन चौतरफा युद्ध की ओर बढ़ रहा है, लेकिन वह अपने लिए फंदा खुद बना रहा है। अगर हम इसे सही तरह से समझें और कारगर तरीके गुरिल्ला युद्ध संचालित करें तो हम अवश्य कामयाब होंगे।
व्यावहारिक रूप से दो मुद्दे हैं। पहला, शासक वर्ग का अन्तरविरोध है। समाज में पुराना अन्तरविरोध है। शासक वर्ग के अन्दर जो नया अन्तरविरोध उभरेगा उसे अवश्य ही जनता के पक्ष में उपयोग किया जाना चाहिए। सिर्फ दुश्मन को शिकस्त देने एवं तात्कालिक फायदे के लिए नहीं, बल्कि क्रान्ति के दीर्घकालिक लक्ष्य के लिए भी यह जरूरी है। हमारी सत्ता की मुख्य ढाल जनाधार और मोर्चा को हमें मजबूत करना चाहिए। कॉमरेड माओ ने कहा है कि सेना एवं युद्ध के विकास में जनता निर्णायक है। दुश्मन के खिलाफ हमें विशाल जनता को लामबन्द करना है और शासकों के बीच के अन्तरविरोध का उपयोग करते हुए एक-एक कर दुश्मन को ध्वस्त करना है।
दूसरा, आन्ध्र में गुरिल्ला युद्ध लड़ते हुए हमें पीछ हटना पड़ा, लेकिन हम वहाँ पूरी तरह यह लड़ाई छोड़े नहीं हैं। तथापि यह पीछे हटना है। गोदावरी घाटी (आन्ध्र प्रदेश) से महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, झारखंड से लेकर पश्चिम बंगाल की सीमा तक हमें गुरिल्ला युद्ध को तीखा करना है और उसका विस्तार भी। अपनी ताकतों से दुश्मन का प्रतिरोध करना है, लेकिन यह ठोस स्थिति के आधार पर हमारी सुविधानुसार होना है। अभी हमें प्रत्याक्रमण और पश्चगमन के रणकौशल का चालाकी से उपयोग करना है। हमें गुरिल्ला युद्ध को चलायमान युद्ध में एवं गुरिल्ला सेना को नियमित सेना में विकसित करना है। हमें जनता की सक्रिय भागीदारी की जरूरत है। जनता ही हमारी ताकत है। दुश्मन हमें सिर्फ आमने-सामने के सशस्त्र मुकाबले तक सीमित रखने की कोशिश करेगा। वे हमारे क्षेत्र को अलग-अलग खंडों में बाँटकर हमें घेरना चाहते हैं। लेकिन हम भी जनता को इकट्ठा कर मधुमक्खी की तरह उसको उसके आधार कैम्प से खदेड़ सकते हैं। उन गाँवों में भी क्रान्तिकारी जन कमेटी का काम अभी भी चल रहा है, जिन इलाकों में दुश्मन के कैम्प हैं। सुरक्षा बलों की जानकारी में सैकड़ों की संख्या में लोगों ने पोखरों को बनाया।
जिस तरह से दुश्मन हमारी जनता को विभाजित कर रहा है, हम भी अपने आधार के विस्तार के लिए प्रयास कर रहे हैं और दुश्मन के कैम्प/आधार को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। हमें गुरिल्ला युद्ध के रणनीतिक महत्व को दिमाग रखना है। वे लोग एक लाख तक की सेना बुला रहे हैं। वे जम्मू-कश्मीर से राष्ट्रीय रायफल्स (भारतीय सेना के Counter Insurgency बल के विशेष आनुषंगिक) को बुलाने एवं तैनात करने का फैसला किये हैं। फिर भी लालगढ़ लेकर सूरजागढ़ में करोड़ों लोग हैं। अगर हम दुश्मन की सेना से लड़ने के लिए जनता को सक्रिय रूप से गोलबन्द करने में सफल होते हैं तो हम इसी युद्ध को क्रान्तिकारी बदलाव का आधार बना पाएँगे। यह निश्चित रूप से हमारे लिए चुनौती है, लेकिन हमें भरोसा है कि लम्बे दौर में इसका फायदा है, जिसे कम समय में हासिल नहीं किया जा सकता। लेकिन दुश्मन इस युद्ध को कम समय में समाप्त करना चाहता है और हम इसे लम्बा खींचना चाहते हैं और इस स्थिति को हम क्रान्ति के अनुकूल अपनी सुविधानुसार बदलना चाहते हैं।
वे हमारे क्षेत्र को सीमित करने का प्रयास कर रहे हैं जबकि हम उसे फैलाने की कोशिश में लगे हैं। वे ग्राम सुरक्षा समिति बनाकर तथाकथित समाज विरोधियों के खिलाफ लड़ने के नाम पर हमें रोकने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं, लेकिन जनता हमें आमंत्रित कर रही है। यहाँ तक कि नये, कम अनुभवी कैडरों को, जिनके पास बहुत ही कम हथियार हैं, को लोग अपने इलाके में बुला रहे हैं। उदाहरण स्वरूप उड़ीसा के सोनभद्र के ग्रामीणों ने हमें खुद आमंत्रित किया। ऑपरेशन रोप वे के रूप में रायगढ़ से नयागढ़ तक का क्षेत्र विस्तार योजना, जिसके तहत नयागढ़ हमले को निर्देशित किया गया था, ने 8-10 महीने के कम समय में इस क्षेत्र में हम विस्तार करने का सामर्थ्य दिया । इसलिए नयागढ़ हमले का न सिर्फ सैनिक महत्व है, बल्कि राजनीतिक महत्व भी है, क्योंकि इस हमले के पीछे रणनीतिक कारण थे। छत्तीसगढ़ के मानपुर के मैदानी इलाके में विस्तार के लिए ऑपरेशन विकास लिया गया। लोग हमें आमंत्रित कर रहे हैं और उनका आत्मविश्वास बढ़ा हुआ है। अगर हम इस तरह के इलाके का विस्तार करते हैं तो निश्चित ही हम बढ़ेंगे और गुरिल्ला युद्ध के क्षेत्र को फैला पाएँगे। अगर हम इसी तरह चलेंगे और गुरिल्ला युद्ध को सफलतापूर्वक खींच पाएँगे तो लम्बे समय में राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति में बदलाव निश्चित है। साथ ही, इसके दबाव में राज्य चरमरा जाएगा। अभी राज्य अपनी इच्छानुसार सैनिक मद में खर्च कर रहा है, लेकिन जैसे-जैसे युद्ध खींचता जाएगा और युद्ध का नये क्षेत्रों में विस्तार होता जाएगा, वह जितना अधिक खर्च करेगा, लम्बे समय में वह सब व्यर्थता की ओर बढ़ेगा। हम युद्ध को इस रणनीतिक योजना से लड़ रहे हैं। इस सवाल के दूसरे पहलू की मैं पहले सवाल के जवाब में व्याख्या कर चुका हूँ।
प्रश्न : इस मोड़ पर पार्टी के लिए क्या संयुक्त मोर्चे का केन्द्र बनना सम्भव है? उदाहरण स्वरूप दिल्ली में काम करते हुए, जहाँ पार्टी कमजोर है, आप किस रूप में संयुक्त मोर्चा को देखते हैं?
उत्तर : पार्टी को संयुक्त मोर्चे के केन्द्र में रखना सबसे महत्वपूर्ण काम है। मैं आपके सवाल के प्रथम पहलू का पहले सवाल में जवाब दे चुका हूँ। अगर दिल्ली में हम ऐसा कर सकते हैं तो काम करना आसान हो जाएगा। लेकिन आज वह स्थिति नहीं है। इसलिए पार्टी स्थिति का विश्लेषण करते हुए दूसरे सम्भव उपायों के जरिए पार्टी को केन्द्र में रखने का प्रयास कर रही है। दूसरे तरीके हैं, दूसरी माओवादी, जनवादी, एवं प्रगतिशील ताकतों के जरिए। इसलिए दिल्ली जैसी जगहों पर, जहाँ सीधे तौर पर पार्टी के लिए प्रत्यक्ष रूप से सीमित अवसर है, हमें दूसरे तरीके से काम करना है। हमारी ताकतों को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए, संयुक्त मोर्चा के लिए सक्षम कैडरों को लगाना चाहिए। सबसे भरोसेमन्द ताकतों को पहचानना एवं किसी भी महत्वपूर्ण स्थान पर साझा समझदारी बनाना चाहिए। कई तरह बन्दोबस्त करने होंगे। दूसरी जनवादी, प्रगतिशील एवं माओवादी ताकतों को इकट्ठा करना चाहिए और अन्तरवर्ती समय में नेतृत्व करने के लिए उन्हें तैयार करना चाहिए।
प्रश्न : लालगढ़ आन्दोलन के शुरुआती दिनों में भारी संख्या में बुद्धिजीवी आन्दोलन के समर्थन में आगे आये थे। लेकिन बाद के समय में आन्दोलन के अगले स्तर के सम्बन्ध में बुद्धिजीवियों के बीच मतभेद उभरा और अब उनका सरोकार यूएपीए जैसे कानूनों का विरोध करने जैसे मुद्दे पर केन्द्रित हो रहा है। आप इस स्थित को किस रूप में देखते हैं?
उत्तर : अगर मेरे पास हालिया राज्य कमेटी की रिपोर्ट रहती तो मेरे लिए इस सवाल का जवाब देना आसान होता। इसके बावजूद मैं यह कहना चाहूँगा कि शुरुआती दिनों में बुद्धिजीवियों का काफी समर्थन मिला। अब दुश्मन के हमले एवं संघर्ष के बदलते स्वरूप के कारण समर्थन आधार में भी बदलाव आएगा। कुछ लोग लालगढ़ आन्दोलन के विरोधी पक्ष में भी जा सकते हैं। बंगाल में नागरिक स्वातंत्र्य समूह एवं शहरी क्षेत्र में हमारा उतना मजबूत प्रभाव नहीं है।
इसे विकसित करने के लिए हमें और काम करना होगा। शहरी क्षेत्र में हमें अपने काम को मजबूत करने की जरूरत है। वहाँ हमारे काम एवं लालगढ़ आन्दोलन के उच्च स्तर पर विकसित होने के ऊपर बहुत कुछ निर्भर करता है। बुनियादी वर्ग की जनता के बीच काम करने एवं बुद्धिजीवियों के बीच काम करने में बहुत अन्तर है, क्योंकि बुद्धिजीवियों के बीच काम में कई जटिलताएँ हैं। इस सन्दर्भ में अगर बुद्धिजीवी यूएपीए के खिलाफ लामबन्द हो रहे हैं और इसका हमारे बुनियादी संघर्ष से अन्तरविरोध नहीं है तो यह हमारे लिए सकारात्मक होगा। आन्दोलन के हिंसात्मक चरण में जो प्रत्यक्ष रूप से आन्दोलन के समर्थन में आगे नहीं आ सकते, वे लोग इस तरह के मुद्दों में साथ आ सकते हैं। माँगें बदल सकती हैं, लेकिन इन्हें जनता की माँग बनना चाहिए। लालगढ़ और नये मुद्दों दोनों को सन्तुलित करना है।
मैं कहूँगा कि जनता के पक्ष में खड़े हुए किसी भी तबके या व्यक्ति, जो हमारी बुनियादी लाइन से सहमत नहीं हैं, पार्टी निश्चित रूप से उनकी सकारात्मक आलोचना को सुनेंगी। हम अपनी गलतियों को सुधारने एवं पार्टी को मजबूत करने के लिए जनता की आलोचना का स्वागत करते हैं। यूएपीए के खिलाफ आन्दोलन जनता के हित में तत्काल एवं लम्बे समय में उपयोग किया जाने वाला है। सामान्यत: इस क्षेत्र में किसी तरह की लामबन्दी लम्बे समय में पार्टी के हितों की विरोधी नहीं है।
प्रश्न : पार्टी के कामकाज में आप लोकतंत्र को कहाँ रखते हैं, जिसका मतलब हड़ताल करने का अधिकार, विरोध करने का अधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए पार्टी में कितना स्थान है?
उत्तर : यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। लेकिन इस पर हमारी पार्टी में किसी तरह का भ्रम नहीं है। हमें नया जनवादी राज्य चाहिए, जहाँ दलाल नौकरशाह पूँजीपतियों, जमीन्दारों एवं साम्राज्यवादियों को छोड़कर सभी के लिए वास्तविक या सच्ची आजादी होगी। जनता के दुश्मनों के अलावा सबके लिए वास्तविक / सच्चा जनवाद होगा । क्रान्तिकारी जन कमेटी / जनताना सरकार की नीति व कार्यक्रम तैयार करते समय हमने ऐतिहासिक तेलंगाना सशस्त्र कृषि क्रान्ति के ग्राम राज्य के अनुभवों, चीनी सोवियतें, फिलीपीन्स के पीपुल्स वारियों कमेटी, पेरू की क्रांतिकारी जन कमेटी, नेपाल की संयुक्त क्रान्तिकारी जन परिषद के नीति-कार्यक्रमों और साथ ही महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का अध्ययन किया। ऊपर वर्णित सभी के अनुरूप हमारे यहाँ सभी मूलभूत अधिकार हैं, जिनमें निर्वाचित व्यक्ति को वापस बुलाने एवं पद पर बने हुए किसी व्यक्ति का जन हित के खिलाफ काम करने पर जन अदालत में उसके खिलाफ मुकदमा चलाने के अधिकार शामिल हैं।
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान अध्यक्ष माओ द्वारा घोषित चार महान अधिकारों में सिर्फ ‘कैरेक्टर पोस्टर’ को छोड़कर बाकी सभी अधिकार क्रान्तिकारी जन कमेटी के नीति कार्यक्रम में स्वीकृत हैं। जनताना सरकार का स्तर विकसित होने पर हम कैरेक्टर पोस्टर का अधिकर भी देंगे। हमारे संविधान के अनुसार, किसी को भी राजनीतिक विरोधिता के कारण शारीरिक दंड नहीं दिया जाएगा। सभी को राजनीतिक रूप से भिन्न राय रखने एवं यहाँ तक कि यूनियन बनाने का अधिकार है। भारतीय राज्य विरोध को नियंत्रित करना चाहता है, इसलिए जनता क्रान्ति चाहती है। हम वही गलती नहीं दुहराना चाहते हैं। इसके अलावा अभियोजन में किसी तरह की गलतियों के लिए अभियुक्त को ग्राम क्रान्तिकारी कमेटी, उससे उच्च कमेटी एवं पार्टी तक में अपील करने का अधिकार है। उदाहरण स्वरूप, हमारे एक क्षेत्र में पुलिस के आईजी से सांठगांठ करके दो गाँवों के 33 ग्रामीण दुश्मन के एजेंट बन गये। इस सम्बन्ध में हमारे कॉमरेड वहाँ जाकर स्थिति को सुलझाये। ग्रामीण पुलिस के प्रधान मुखबिर को मौत की सजा देना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने मध्यस्थता करके उस व्यक्ति को अपनी गलती का अहसास दिलाने के लिए एक मौका देने का फैसला किया।
प्रश्न : संयुक्त मोर्चे में सभी हिस्सेदारी नहीं करेंगे। कुछ माओवादी समूह एवं जनवादी संगठन इसके बाहर भी रह सकते हैं। आप किस तरह ऐसी स्थिति का सामना करेंगे?
उत्तर: जनता के दुश्मन ही हमारे विरोधी हैं और 95 प्रतिशत जनता उनके विरोध में रहेगी। लेकिन भारतीय सन्दर्भ में 5 प्रतिशत भी बहुत ज्यादा है। हमारी पार्टी को विश्वास है कि दीर्घकालीन लोकयुद्ध दुश्मन की राजनीतिक सत्ता को प्रत्यक्ष एवं सांस्कृतिक रूप से नष्ट करने का अवसर प्रदान करता है। इस दौर में शासक वर्ग के अनुयायियों को अपने को बदलने के लिए मदद किया जाएगा। चीन में मादाम सुन यात सेन अपनी मौत तक सत्ता में थीं। हालाँकि वह कभी पार्टी सदस्या नहीं रहीं। वह उसी वक्त तक रह सकते हैं, जब तक वह जनता की सेवा करते हैं और जब तक उन्हें जनता का समर्थन रहता है। जब वह सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो जाएँगे तब स्वाभाविक तौर पर लुप्त हो जाएँगे। अगर इन पार्टियों को जनता का समर्थन है तो इनके लिए चुनाव जीतना सम्भव है। क्रान्तिकारी जन कमेटी के नीति-कार्यक्रम में यह प्रावधान है कि दूसरे पार्टी संगठनों के लोग भी अगर मतदाता हैं तो वह क्रान्तिकारी जन कमेटी में शामिल हो सकते हैं और उसके लिए चुने जाने का अधिकर उन्हें है। यह हमारी समझदारी है, व्यवहार में जमीनी स्तर पर इसको लागू करना है। इस पहलू में हमें विकसित होना है। इस सम्बन्ध में नेपाल में कुछ प्रगति हुई है।
हम छोटे एवं मझोले पूँजीपतियों को कुछ पाबन्दियों के साथ विकसित होने देते हैं ताकि वे जन-विरोधी न हो जायँ और कालाबाजारी, जमाखोरी तथा सट्टेबाजी को नियन्त्रित किया जाय।
हम बड़ी पूँजी, जैसे दलाल नौकरशाह पूँजी एवं विदेशी पूँजी पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। दृष्टान्त स्वरूप 1998-99 में सरकार ने वन उत्पादों के कारोबार में छोटे व्यापारियों पर रोक लगा दी। जब स्थानीय व्यापारियों (खीरजों) ने विरोध किया तो हमने उनके लिए आन्दोलन किया। हालाँकि, हमने सूदखोरी बन्द करवाया एवं जंगल सम्पदा के अन्धाधुन्ध दोहन को नियन्त्रित किया। हम बाहर से सामान लाने को नहीं रोक रहे हैं। यह एक प्रकार का पूँजीवादी विकास ही है, लेकिन हम इसे नियंत्रित कर रहे हैं। जनता की अर्थनीति को विकसित होने देना जरूरी है। अगर व्यापारियों का सहयोग नहीं रहता तो हम कैसे बने रहते ? जनताना सरकार में व्यापार एवं उद्योग विभाग छोटे व्यापारियों को सम्भाल रहा है ताकि बाहरी पूँजीपति कोई फायदा न उठा सकें। छोटे व्यापारियों को पूरी आजादी दी गयी है, जबकि दुश्मन के सहयोगी उन्हें अपने पक्ष में जीतने की कोशिश कर रहे हैं। सिर्फ लोगों के जीवन-मरण के सवाल पर ही किसी को शारीरिक दंड की इजाजत दी जाती है। लेकिन इस वक्त जब हम दमन एवं युद्ध का सामना कर रहे हैं, इसे स्वीकार करना होगा कि हम एक जटिल स्थिति से गुजर रहे हैं।
प्रश्न: वार्ता के सम्बन्ध में आपकी पार्टी का क्या रुख है?
उत्तर: सामान्य तौर पर माओवादी क्रान्तिकारी एवं जनता हिंसा नहीं चाहते हैं, न ही किसी से हथियारबन्द टकराहट । कोई रास्ता नहीं बचने पर ही वे हथियार उठाते हैं और दुश्मन का प्रतिरोध करते हैं। वे इतिहास से शिक्षा लेकर मुक्ति युद्ध चला रहे हैं। चौतरफा युद्ध की इस स्थिति में हमें आन्ध्र प्रदेश में । लाख 30 हजार, छत्तीसगढ़ में 45 हजार (जबकि शीघ्र ही इसमें 20 हजार का इजाफा होने जा रहा है), महाराष्ट्र में 1 लाख 60 हजार बल की मौजूदगी को ध्यान में रखना होगा। सभी राज्यों के पास इतना पुलिस बल हैं, जो कई यूरोपीय देशों के राष्ट्रीय बल से अधिक हैं। राज्यों द्वारा सबसे अधिक क्रूर एवं खतरनाक – विशेष पुलिस बल को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। उसके साथ ही कठोर जनविरोधी कानून लाये जा रहे हैं। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश के साथ उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में कुल मिलाकर 7-8 लाख पुलिस बल हैं, जिसमें ढाई से तीन लाख को प्रत्यक्ष रूप से जनता के खिलाफ तैनात किये गये हैं। इसके साथ ही इन इलाकों में 1 लाख अर्धसैनिक बल तैनात किये गये हैं। उत्तर पूर्व एवं जम्मू-कश्मीर में आन्दोलन के खिलाफ तैनात बल से अधिक शक्तिशाली बल के साथ यहाँ की जनता लड़ रही है। जनता के राजनीतिक आन्दोलन को कुचलने एवं खनिज सम्पदा का दोहन करने के मकसद से चलाया गया यह एक क्रूर एवं हिंसक दमन अभियान है।
इस स्थिति में, अगर सम्भव हो तो हम कुछ राहत की आशा करते हैं। यह राहत जितनी लम्बी होगी जनता के लिए उतना बेहतर होगा। जनवादी काम करने के लिए इसकी जरूरत है। लेकिन जब सरकार अपने हाथ में स्वयं ही बन्दूक ले रही है, तब इसके बारे में कोई बात नहीं की जा सकती। जनता लड़ती रहेगी। गोली चलाते समय जनता कभी हथियार नहीं छोड़ती एवं जनता कभी आत्मसमर्पण नहीं करती। केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा जनता के ऊपर चलाये गये इस चौतरफा युद्ध के खिलाफ सभी जनवादी, प्रगतिशील एवं देशभक्त ताकतों को एकताबद्ध होकर लड़ना होगा। पार्टी ने सरकार के सामने संक्षेप में जो मुख्य माँगें किसी भी तरह की बातचीत करने के लिए रखी है, वे इस प्रकार हैं : 1. चौतरफा युद्ध को वापस लेना होगा, 2. किसी भी तरह ‘जनवादी कार्य करने के लिए पार्टी एवं जन संगठनों पर से प्रतिबन्ध हटाना होगा, 3. कॉमरेडों की गैरकानूनी गिरफ्तारी एवं यातना बन्द करना होगा और उन्हें तत्काल रिहा करना होगा। अगर यह सब माँगें स्वीकार कर ली जाती हैं, तो जेल से रिहा किये गये कॉमरेड वार्ता में पार्टी की अगुआई करेंगे और पार्टी का प्रतिनिधित्व करेंगे।
यान मिर्डल ने जब 1980 के दशक में ‘IndiaWaits’ में उन्होंने आन्दोलनके बारे में लिखा, तब से राजनीतिक एवं सैनिक दोनों पहलुओं में बहुत सारे विकास (परिवर्तन) हुए हैं। उसी समय से हमने ठोस भारतीय विशिष्टता को ध्यान में रखकर एक परिप्रेक्ष्य को विकसित होते देखा। चारू मजूमदार के समय के बहुत कम ही अनुभवी नेता बचे हुए थे। बहुत से दक्षिणपंथी भटकाव में चले गये, कुछ वामपंथी भटकाव के शिकार बने एवं बहुत कम यहाँ आये। मौटे तौर पर यह एक नयी पीढ़ी थी, नया युवा एवं उन्हें अनुभवी कैडर में विकसित करने के लिए लम्बा समय लगाना पड़ा। जब आप यान मिर्डल यहाँ 1980 में आये थे, तब पार्टी इस समस्या से गुजर रही थी। पीपुल्स वार के सन्दर्भ में सिर्फ 6-7 साल के अन्दर उपयुक्त नेतृत्व उभरकर आया। जब 1980 में यान मिर्डल आन्ध्र प्रदेश का दौरा किये थे, तब सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वार की सिर्फ राज्य कमेटी थी। उसके साथ तमिलनाडु राज्य कमेटी थी। उस समय एक केन्द्रीय कमेटी भी थी, लेकिन वह सिर्फ इन्हीं दो राज्यों तक सीमित थी। उसका दायरा भी सीमित था । उस दौरान माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर बंगाल एवं बिहार में काम कर रहा था। हालाँकि बंगाल में वह बहुत कमजोर था। उसी तरह से पीपुल्स वार आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में काम कर रहा था एवं तेलंगाना में वह बहुत कमजोर था। यह उस समय में दो केन्द्रों, दो क्षेत्रों में काम के बारे में पश्चदशी अवलोकन है। कॉमरेड कोबाद गाँधी एवं महाराष्ट्र के कुछ अन्य कॉमरेड बाद में पीपुल्स वार में शामिल हुए। माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर में कॉमरेड कान्हाई चटर्जी कुछ इलाकों में, जैसे आसाम में (लेकिन बहुत ही सीमित स्तर पर भी कुछ काम शुरू किये। अब 20 राज्यों में हमारी उपस्थिति है लेकिन बहुत सारे राज्यों में पार्टी अब भी बहुत कमजोर है। दीर्घकालीन लोकयुद्ध में भी असमान विकास है। हमारी ताकत के अनुसार, विभिन्न क्षेत्रों में आन्दोलन अलग-अलग स्तर में है। इस सन्दर्भ में हमारा कहना है कि क्रान्तिकारी पार्टी का विकास एवं उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होते हैं।
कॉमरेडों, 1980 के दशक में हम पीछे हटने की स्थिति से उबरने का प्रयास कर रहे थे। वह समय था पुनर्गठन एवं सुदृढ़ीकरण का। एक तरफ संकीर्णतावाद की समस्या थी तो दूसरी तरफ हमारा जनाधार मोटे तौर पर खो गया था। इसलिए हमें जन संघर्ष एवं सैन्य दोनों पहलुओं को फिर से पुनरुज्जीवित करना था। उसी के अनुरूप हमारा रणकौशल भी बदला। उस समय मुख्य रूप से सामन्तवाद विरोधी संघर्ष एवं साम्राज्यवाद विरोधी प्रचारात्मक आन्दोलन शुरू किया गया था। ताकि राज्य विरोधी मानसिकता बनायी जा सके एवं शहरी क्षेत्र में आन्दोलन की राह खोली जा सके। पूर्ववर्ती समय में कॉमरेड चारू मजूमदार की लाइन जन संगठन को कनकारती थी। बाद में हमने इस पर पुनर्विचार किया और गहन आत्म- समालोचनात्मक समीक्षा द्वारा यह पाया कि शुरुआती दौर में कुछ गलतियाँ की गयी थीं। उसके आधार पर आगे बढ़ने के लिए हमने आन्दोलन का पुनर्निर्माण किया। आत्म-समालोचनात्मक समीक्षा 1974 में तैयार हुई थी। अगस्त 1977 तक पार्टी के अन्दर की ताकतों को इससे सहमत किया गया। व्यवहार में आन्ध्र प्रदेश राज्य सम्मेलन (सितम्बर 1980) ने इसे पूर्णपुष्ट किया। यहाँ से एक नये व्यवहार की शुरुआत हुई।
सर्वप्रथम, एक क्रान्तिकारी पार्टी को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय हालतों के साथ-साथ आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों को समझने के लिए एक नेतृत्व की जरूरत है, ताकि उसके अनुसार वह कार्यनीति बना सके। मैंने 1980 के दशक के बाद के कुछेक परिप्रेक्ष्यों की जो चर्चा की हैं, अगर हम उन अनुभवों को मिलाएँ तो देखेंगे कि बाद के सालों में समझदारी के इस दायरे में हमने कुछ प्रगति हासिल की है। दूसरा, एक क्रान्तिकारी पार्टी के लिए जनता को संगठित एवं वर्ग संघर्ष का नेतृत्व करना आवश्यक है। रणनीतिक परिप्रेक्ष्य में योजना बनायी गयी। कुछ जगहों को चुना गया। इसके बाद पार्टी के नेतृत्व में जन संघर्ष की दिशा में 1980 के दशक से विकास कुछ हुआ। यह एक ठोस विकास के रूप में सामने आया।
तीसरा, एक क्रान्तिकारी पार्टी के लिए सशस्त्र संघर्ष संगठित करना महत्वपूर्ण है। चन्द्रपुल्ला रेड्डी का गुट सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का नाम रखता था। वह सत्यनारायण सिंह के नेतृत्ववाला प्रोविजनल सेंट्रल कमिटी (पीसीसी) का हिस्सा था। गोदावरी क्षेत्र में 1980 में यान मिर्डल के दौरे के समय सिर्फ इसी गुट के पास कुछ दस्ते थे। उस समय पीपुल्स वार ने किसान दस्ते की शक्ल में कुछ सशस्त्र दस्ते शुरू किया था, जब कि उस समय सीपी रेड्डी गुट के पास 60-70 सशस्त्र कैडर थे।
बाद में हम इलाकावार सत्ता दखल करने एवं जन सेना के निर्माण के विचार के आधार पर जब वर्ग संघर्ष विकसित किये, तब पीपुल्स वार यहाँ पर एवं एमसीसी ने बिहार में 5, 7, 9, 11 के स्तरों पर सशस्त्र गुरिल्ला दस्तों को बनाने का काम शुरू किया। इस तरह कुछ प्लाटून एवं गुरिल्ला जोन बने। कुछ इलाकों में 2004 में एकता के कुछ ही पहले कम्पनी बन चुकी थी । पूर्ववर्ती पीपुल्स वार के पास पीपुल्स गुरिल्ला आर्मी (पीजीए) और पूर्ववर्ती एमसीसी के पास पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) थी। विलय प्रक्रिया में हमने सीपीआई (माओवादी) के मातहत पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की स्थापना किये। अगला चरण है बटालियन बनाने का यह पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) बनाने की ओर बढ़ेगी। बुनियादी सिद्धान्त को आधार बनाकर हम राजनीतिक एवं सैन्य ताकत और जनता की राजनीतिक सत्ता के उच्च स्तर पर विकसित हुए हैं। यह दृष्टि 1980 के दशक के पहले से ही थी । माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर की भी यही दृष्टि थी। लेकिन व्यवहार में इसने एकता के बाद ही ठोस रूप लिया।
मैं दो अन्य स्थितियों के विकसित होने के बारे में बताना चाहूँगा। एक पार्टी, जो अपने व्यवहार में ऐसी कार्यनीति या नीति को उभरने दे रही है, जिसमें उसे विशाल जनता को अपनी पाँत में लाना है, को ऐसा व्यवहार अपनाना होगा, ताकि हजारों-लाखों जनता जुड़ सके। व्यवहार में समस्या का सामना करते हुए एवं अपनी गलतियों को सुधारने के दौरान तीखा आन्तरिक एवं बाहरी संघर्ष हुआ है। तीखे वैचारिक एवं राजनीतिक संघर्ष को प्रक्रिया से गुजरते हुए हम आज की स्थिति में पहुँचे हैं। शुद्धीकरण एवं 70 के दशक की समीक्षा से पीपुल्स वार उबर कर आया है एवं इसे गम्भीर आन्तरिक संकटों का सामना करना पड़ा – पहला, 1980 के मध्य में संकीर्णतावाद एवं कठमुल्लावाद एवं दूसरा, 1990 के दशक की शुरुआत में कॉमरेड कोंडापल्ली सीतारमैया के नेतृत्व के अवरोध का ।
उसके बाद फिर एमसीसी एवं पीपुल्स वार के बीच की टकराहटें कभी नहीं भूलने वाला एक कड़वा अनभुव रहा है, जो हमारे इतिहास का एक काला अध्याय है। वैचारिक एवं राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने के लिए पार्टी ने कार्यनीतिक रूप से दो दृष्टिकोणों को अपनाया – चर्चा एवं समीक्षा तथा संघर्ष। तीनों संकटों के दौरान पार्टी सफलता से उबर कर आयी। माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर भी इस तरह के अपने आन्तरिक संकट से बाहर आया। उसका एक हिस्सा पीपुल्स वार के साथ लड़ाई जारी रखना चाहता था। माओवाद एवं कठमुल्लावाद विषय पर भी वैचारिक मतभेद था, जिससे वह सफलतापूर्वक उबर सका। पार्टी यूनिटी भी दीर्घकालीन लोकयुद्ध एवं खेतिहर क्रान्ति की विरोधिता करने वालों से संघर्ष करते हुए सफलतापूर्वक उबर सकी। पीपुल्स वार एवं एमसीसी इस चरण में सिकुड़ते जा रहे थे जबकि विनोद मिश्र एवं सत्यनारायण सिंह गुट शक्तिशाली एवं प्रभावशाली बनते जा रहे थे। विनोद मिश्र वामपंथी अवसरवाद की ओर एवं सत्यनारायण सिंह दक्षिणपंथी अवसरवाद की ओर मुड़ गये। व्यवहार में वे विभाजित हो गये एवं अन्ततः वास्तव में विलोप के कगार पर पहुँच गये। अब उनका नाममात्र अस्तित्व रह गया है।
पहले हमें संशोधनवाद के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ ऐसी लाइन का सामना करना पड़ा जो सिर्फ राज्य सत्ता पर कब्जा करने की बात करती थी। इसके अनुसार, राष्ट्रीयता के सवाल, महिलाओं के सवाल, दलित सवाल एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के राजनीतिक सवाल का हल सत्ता पर कब्जा कर लेने से अपने आप जाएगा। हालाँकि, बाद में हम इस अवस्थान में बदलाव किये एवं तात्कालिक नारों एवं दीर्घकालीन नारों को एक साथ जोड़ दिये। यह नव जनवादी क्रान्ति की सफलता एवं उसके विकास के लिए आवश्यक था। बहुत सारे मार्क्सवादी-लेनिनवादी गुट सिर्फ तात्कालिक माँगों को उठाते हैं। इसके कारण वे सुधारवादी बन जाते हैं, जबकि हमने लम्बे समय तक सिर्फ दीर्घकालीन नारों पर ही बल दिया। लेकिन अब हम दोनों को एक साथ लाकर बेहतर स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं।
पार्टी शिक्षण के लिए राज्य तथा जिला स्तर पर कई पार्टी पत्रिकाएँ हैं। पार्टी की एक पत्रिका है। जन संगठनों की भी अपनी पत्रिकाएँ हैं। केन्द्रीय स्तर पर हम पीपुल्स वार/लाल पताका प्रकाशित कर रहे हैं। ये वैचारिक एवं राजनीतिक पत्रिकाएँ हैं, जिन्हें हम अंग्रेजी, हिन्दी एवं दूसरी अन्य भाषाओं में एक साथ निकालते हैं। सैन्य पत्रिका अवामी जंग कई भाषाओं में प्रकाशित होती है। माओइस्ट इन्फॉर्मेशन बुलेटिन अंग्रेजी भाषा में निकलती है। दंडकारण्य में हम निम्नलिखित पत्रिकाओं को प्रकाशित करते हैं: 1. प्रभात (हिन्दी में पार्टी की राजनीतिक पत्रिका), 2. पीयुक्का (गोंडी भाषा में पार्टी को वैचारिक एवं राजनीतिक पत्रिका), 3. पादीचोरा पोल्लो (गोंडी/कोयम भाषा में पार्टी की सैन्य पत्रिका), 4. संघर्षरत महिला (हिन्दी में केएएमएस की पत्रिका), 5. झंकार (बहुभाषिक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पत्रिका) ।
डिवीजन एवं जिला स्तर पर हम गोंडी/कोयम भाषा में इन पत्रिकाओं को निकालते हैं : दक्षिण बस्तर डिवीजन में पोटूरी (विद्रोह), पश्चिम बस्तर डिवीजन में मिदांगुर (फायर प्लेस), दरभा डिवीजन में मोयुल गुडरूम (Thunder), गढ़चिरौली के उत्तर एवं दक्षिण से पोद्धू (Surr), माड एवं उत्तर 1. बस्तर संयुक्त डिवीजन से भूमकाल (Earthquake) एवं पूवी बस्तर डिवीजन से भूमकाल संदेश (रिवेलियन मसेज)।
इनके अलावा जनताना सरकार जनताना राज नामक पत्रिका प्रकाशित करती है। सिलेबस एवं अध्ययन नोट के साथ अध्ययन कक्षा आयोजित की जाती है। राजनीतिक कक्षाएँ अलग-अलग राज्य स्तर पर आयोजित की जाती हैं। कभी कभी 4-6 महीने से लेकर एक साल तक शुद्धीकरण अभियान चलाया जाता है, जिसमें राजनीतिक एवं वैचारिक प्रशिक्षण के लिए चीन, फिलीपीन्स एवं पेरू की क्रान्तियों के इतिहास पर चर्चा होती है। सैन्य स्कूल के लिए सैन्य प्रशिक्षकों की टीम है एवं केन्द्रीय कमेटी की ओर से सैन्य पत्रिका अवामी जंग प्रकाशित की जाती दंडकारण्य में पार्टी अशिक्षा एवं प्राथमिक शिक्षा के अभाव की समस्या का सामना कर रही है। इसलिए हम पार्टी कैडरों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए MAS (मोबाइल एजुकेशन) शुरू किये हैं। इस कार्यक्रम के तहत सैकड़ों कैडरों को प्रशिक्षित किया गया है। जन संगठन भी शैक्षिक कार्यक्रम अपने सिलेबस के आधार पर चलाते हैं। सिलेबस पार्टी नेतृत्व एवं कमेटी सदस्यों की सलाह से बनाये जाते हैं।
जन सेना (पीएलजीए) के विकास की एक भूमिका : देश की ठोस स्थिति एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में बनी हमारे सैन्य विकास के सम्बन्ध में समग्र तस्वीर पाने के लिए मैं आपको हमारे केन्द्रीय दस्तावेजों को देखने का अग्रह करता हूँ। मैं आपको किसी भी क्रान्ति के लिए इसके महत्व के मद्देनजर इस पर ध्यान देने का आग्रह करता हूँ।
संयुक्त मोर्चा के विकास पर भूमिका : वर्षों से हम बहुत सारे मोर्चों पर विकसित हुए हैं, जिसमें किसान, महिला, छात्र, युवा, नागरिक अधिकार ग्रुप, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक ग्रुप, बाल, राष्ट्रीयता, मजदूर, कर्मचारी एवं अन्य हैं। राज्यों में पार्टी जितना मजबूत है उतने ही बड़े-बड़े जन संगठन एवं मोर्चे हैं। पार्टी जिन इलाकों में कमजोर है, वहाँ राज्य स्तर पर पार्टी की ताकत के अनुरूप बहुत ही कम जन संगठन हैं। अभी के समय में पार्टी के पास राज्य एवं केन्द्रीय स्तर के जन संगठन हैं। हमारा विचार है कि चार वर्गों के संश्रय के आधार पर चार वर्गों के संगठनों और अन्य तबकों का प्रतिनिधित्व किया जाए। जन संगठनों के महत्व पर जोर देते हुए आज हमारे 30-40 जन संगठन अलग-अलग तबकों में काम कर रहे हैं। 80 के दशक में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के पास बहुत ही कम जन संगठन थे, जो गुप्त रूप से एवं सीमित दायरे में काम करते थे । आन्ध्र प्रदेश में किसान, छात्र, युवा एवं साहित्यिक व सांस्कृतिक कर्मियों के संगठनों का कुछ प्रभाव था, लेकिन अब हमारी समझदारी के विकसित होने पर गाँव स्तर से लेकर राज्य स्तर एवं केन्द्रीय स्तर तक हमारे जन संगठनों का अस्तित्व है। पीपुल्स बार की नौवीं कांग्रेस में मुद्दों पर आधारित एवं कार्यनीतिक रूप से संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए जन संगठनों को विकसित करने का निर्णय किया गया। तात्कालिक एवं अन्तरवर्ती समय में कुछ मुद्दों पर दुश्मन वर्ग एवं स्थानीय नेता भी साथ आये। विलयन के बाद जन संगठनों एवं संयुक्त मोर्चा निर्माण के मामले में इन और भी विकसित हुए। वर्ग संघर्ष को तत्काल गुप्त रूप से एवं खुले तौर पर भी चलाना होगा। कानूनी अवसरों का उपयोग करना होगा। कुछ जन संगठन मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की सामान्य मार्गदिशा पर काम कर रहे हैं, जबकि कुछ जन संगठन कवर के रूप में कार्यरत हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध :
1980 के दशक के शुरुआत में एमसीसी तथा पोपुल्स वार दोनों अपने क्षेत्रीय स्तर तक सीमित थे। इसके कारण हम बहुत हद तक अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ पाने में असफल रहे। हालांकि 1990 के मध्य से दोनों पार्टियाँ, खासकर सीपीआई (माओवादी) के गठन के बाद हम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका अदा कर रहे हैं। हम अन्तर्राष्ट्रीय बहसों में हिस्सा ले रहे हैं और अन्तर्राष्ट्रीय फोरमों में अपने प्रतिनिधि भेज रहे हैं। लेकिन इस मोर्चे पर बहुत प्रगति की जरूरत है। फिर भी यह 1980 एवं 1990 के दशक से बेहतर स्थिति में है। माओवादी कम्युनिस्ट केन्द्र 2002 में रिवोल्यूशनरी इंटरनेशनल मूवमेंट (रिम) में शामिल हुआ था। हालाँकि पीपुल्स वार ने इसमें भागीदार बनने का विरोध किया, क्योंकि पार्टी का मानना था कि बहुत सारे सोच-विचार, बहस चर्चे के बाद ही इस तरह के अन्तर्राष्ट्रीय मंच विकसित होने चाहिए ताकि संकीर्णतावादी नजरिये से बचा जा सके। इसलिए पोपुल्स वार ने रिम को सदस्यता नहीं ली। लेकिन एमसीसी उसका सदस्य बना। क्लियन के बाद निर्णय हुआ कि इस सम्बन्ध में नयी पार्टी जो फैसला लेगी, उसी के अनुरूप काम किया जाएगा। उसके बाद पूरी पार्टी के निर्णय के अनुरूप पार्टी रिम से अलग रही। हम क्रान्तिकारी अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन (रिम) से दूर रहे, जो अभी वास्तविकता में कार्यरत नहीं है।
भारतीय क्रान्ति, महान विश्व समाजवादी क्रान्ति का अविभाजित हिस्सा है। इसके विजय के लिए सक्रिय रूप से मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का समर्थन करना, साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ना एवं दुनियाभर में जारी वर्ग संघर्षो का समर्थन करना और अन्तर्राष्ट्रीय माओवादी पार्टियों संगठनों, तबकों, सर्वहारा और जनता का समर्थन लेना जरूरी है। हम मानते हैं कि किसी भी क्रान्ति की सफलता के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग एवं समर्थन पाना और समर्थन व सहयोग देना जरूरी है। समग्रता में मैं एक बार फिर कहूँगा कि हम मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की बुनियादी सोच के साथ दृढ़ता से खड़े हैं। हम किसी भी माओवादी पार्टी/संगठन से आलोचनात्मक सुझाव आमंत्रित करते हैं।
हम मानते हैं कि सीपीआई (माओवादी) विश्व सर्वहारा क्रान्ति की सेना की एक टुकड़ी है। अगर यह सफल होती है तो हम कहेंगे कि दुनिया के एक हिस्से में हम विजयी हुए हैं। यह स्वतंत्र नहीं है। यह विश्व समाजवादी क्रान्ति के बतौर हिस्से के रूप में काम करेगी और यह विश्व समाजवादी क्रान्ति की जीत एवं हार से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। साम्राज्यवादी/पूँजीवादी देशों में सर्वहारा के बढ़ते संघर्षों का भारतीय क्रान्ति पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा।
इस बातचीत के अधिकृत प्रतिलेख (ट्रान्सक्रिप्ट) के अनुसार, महासचिव गणपति इस बातचीत को यह कहते हुए समाप्त किये : ‘मैंने पार्टी एवं संयुक्त मोर्चे के विकास की ‘भूमिका’ को सम्पादित नहीं किया है। इसके बावजूद आप इसे आंशिक या पूरे रूप में हमारी आधिकारिक सूचना के रूप में ग्रहण कर सकते हैं।मैं आपसे भारतीय क्रान्ति का मूल्यांकन और ज्यादा सूचना प्राप्त करने के लिए अपनी पार्टी के बुनियादी दस्तावेजों को देखने का आग्रह करता हूँ। मैं भारतीय क्रान्ति पर एक किताब तैयार करने की जरूरत महसूस करता हूँ।”
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अनुवादक गोपाल मिश्रा
प्रस्तुतकर्ता मानस भूषण