सतत विकास और आदिवासी

लेखक: मानस

अगस्त 2021 में इंटरगवर्नमेंटल  पैनल ऑन क्लाइमेटचेंज (IPCC) जो कि सयुंक्त राष्ट्र की ही संस्था  है ने जलवायु परिवर्तन को लेकर एक रिपोर्ट जारी की जिसमे ग्लोबल वार्निंग को लेकर गंभीर खतरों को लेकर चिंता जाहिर की गयी थी। इस रिपोर्ट को मीडिया हाउसेस के द्वारा मानवता के लिए खतरे की घंटी कहा गया।

रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते तापमान से दुनियाभर में मौसम से जुडी भयंकर आपदाएं आएंगी। दुनिया पहले ही वर्फ की चादरों के पिघलते, समुन्द्र के बढ़ते स्तर और बढ़ते अम्लीकरण में अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है। इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का मानना था कि इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस शताब्दी के अंत तक समुन्द्र का जल स्तर दो मीटर तक बढ़ सकता है। वैसे पर्यावरण के सरक्षण के मुद्दों को समझने के लिए किसी दूसरे देश में झाकने की जरुरत नहीं है हम यहाँ ही अपने आस पास देख सकते है, महसूस कर सकते हैं कि हमें आज इसकी कितनी आवश्यकता है। देश की राजधानी अब साँस लेने लायक नहीं बची है, दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरो की लिस्ट में दिल्ली टॉप पर आता है, दूसरे नंबर पर कोलकाता। इस सर्वे में दुनिया भर के 7000 शहरों को शामिल किया गया था जिसमें 103 शहर सबसे ज्यादा प्रदूषित निकले। सर्वे के अनुसार PM 2.5  से सबधित बीमारी के कारण होने वाली मौतें सबसे अधिक बीजिंग में हुयी। यहाँ प्रति एक लाख पर 124 मौतों का कारण PM 2.5 है। इस सूची में दिल्ली छठे स्थान पर था, यहाँ प्रति एक लाख में से 106 मौतें हुयी और कोलकाता इस सूची में तीसरे स्थान पर था। इस तरह के अध्ययन तो और भी बहुत सारे हैं जो अब साफ-साफ इशारा कर चुके हैं कि अब पृथ्वी रहने लायक नहीं बची है जिस औद्योगीकरण को हम विकास मान रहे थे अब वो ही हमारे विनाश का कारण बनता जा रहा है। अभी ताजे मामले जोशीमठ को देखकर समझा जा सकता है, अब कई एक्सपर्ट कह रहे हैं कि जोशीमठ की आपदा जितनी प्राकृतिक है उससे कही ज्यादा मानव निर्मित। हिमालय में विकास के नाम पर विस्फोट करना, पहाड़ों को खोदकर सड़कों का निर्माण करना, कंक्रीट के जगलों को खड़ा करना यही वर्तमान कारण है जिसके कारण आज एक पूरा का पूरा शहर ही धंसता जा रहा है। और ये सब उस ही राज्य में हो रहा है जहाँ 1974 में पेड़ों को बचाने के लिए मशहूर चिपको आंदोलन हुआ था।

पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा एक वैश्विक मुद्दा है। अब दुनियाभर में आर्थिक नीतियों के पुनरावलोकन और सतत विकास की बहस जोरों पर है।  जनता तो जनता लेकिन अब तो ऐसे देशो की सरकारों ने भी सतत विकास की बाते शुरू कर दी हैं जिनका एक पूरा इतिहास न सिर्फ अपने बल्कि तीसरी दुनिया के देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ने का रहा है।

सतत विकास

सतत विकास की अवधारणा के कुछ बुनियादी बिंदु हैं:

  1. पर्यावरण का संरक्षण जिसमें जैविक विविधता का ध्यान रखा जा सके।
  2. आर्थिक विषमता को दूर करना।
  3. आज की पीढ़ी की जरूरतें की पूर्ति तो हो लेकिन इस तरह से हो कि हम आगे आने वाली पीढ़ियों के हक को ही न खा जाए।

एक अध्ययन के अनुसार पृथ्वी के 80 प्रतिशत जंगल काटे जा चुके हैं,  पिछले तीन दशकों में हम प्रकृति के 1 तिहाई संसाधनों का इस्तेमाल कर चुके हैं। जो कि हमारी वर्तमान की जरूरतों की पूर्ति से कई गुना अधिक है।

अगर बात करे आर्थिक मसलों की तो अभी हाल ही में ऑक्सफेम की रिपोर्ट आयी है जिसमें बताया  गया है कि मात्र 21 अरबपतियों के पास ही देश के 70 करोड़ भारतीयों से अधिक संपत्ति है। कोरोनाकाल से लेकर पिछले साल नवंबर तक भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 121 फीसदी या 3608 करोड़ रुपयों की हर दिन वृद्धि हुई है। केवल 5 प्रतिशत भारतीयों के पास ही देश की कुल संपत्ति का 62 फीसदी से अधिक हिस्सा है। तो न तो आर्थिक मोर्चे पर हालत अच्छे हैं और न ही पर्यावरण की दृष्टि से। न सरकारों के पास इसकी रोकथाम के लिए कोई स्पष्ट नीति हैं और न ही तथाकथिक मुख्यधारा का समाज इसके लिए संवेदनशील है। सतत विकास का सिर्फ नारा ही जोरों पर है लेकिन इसके क्रियान्वन के लिए कोई भी गंभीर नहीं है।

लेकिन इन सबमें उनका क्या जो हजारों सालों से सतत विकास की पद्धति पर जी रहें हैं? सत्ता और समाज की नजरों में वो तो देश के दुश्मन हैं। देश का शहरों में रहने वाला माध्यम वर्ग अब पर्यावरण को लेकर चिंतित भी नजर आ रहा है, सतत विकास को लेकर कुछ कुछ बोलने भी लगा है, ग्रेटाथुम्बर्क जैसा कोई आंदोलन होता है तो उसमें लपक के शामिल भी हो जाता है लेकिन अपने ही देश के आदिवासियों की लड़ाई, उनके मुद्दों को समझने को तैयार नहीं है।

 आदिवासी समाजों में सभी व्यक्ति समाज का ख्याल रखते हैं
   और समाज व्यक्तियों का ख्याल रखता है
   आदिवासी समाज में बूढ़े , बीमार , विकलांग सभी का ख्याल रखा जाता है
   आदिवासी समाजों में प्रकृति का कोई व्यक्ति मालिक नहीं माना जाता
   आदिवासी समाजों में जंगल नदी पहाड़ सबके सांझे होते हैं
   आदिवासी समाजों में कोई समाज को छोड़ कर अकेले अमीर बन जाने का सोचता भी नहीं है
   फिर ये विकसित समाज में मनुष्य ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ?
   विकसित समाज में क्यों मनुष्य सब को पीछे छोड़ कर सबसे आगे निकलना चाहता है ?
   विकसित समाज में क्यों मनुष्य सारे संसाधनों का अकेले मालिक बन जाना चाहता है ?
   विकसित समाज में क्यों आप सारी दुनिया के अकेले मालिक बन जाना चाहते हैं ?

 – हिमांशु कुमार सामाजिक कार्यकर्त्ता

मैं यहाँ ग्रेटाथुम्बर्क या ऐसे किसी पर्यावरण संरक्षण के लिए किये जा रहें प्रयास या आंदोलन पर ऊँगली नहीं उठा रहा हूँ बल्कि मध्यम वर्ग के विरोधाभास को उजागर करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मुख्यधारा के समाज आदिवासियों को इतिहास से लेकर वर्तमान तक किस कदर नजअंदाज करता हुआ आया है।

आदिवासी क्यों लड़ रहा है?

मुनाफे की भूख और आदिवासियों का प्रकृति के लिए प्रेम। यही इस पूरे द्वन्द का, पूरे संघर्ष का कारण है। असल में मुद्दा इतना साफ और सरल है की अगर शहरों में रहने वाला समाज समझना चाहे तो बड़ी आसानी से समझा जा सकता है, अगर समझना चाहे तो ?

झारखण्ड और छत्तीसगढ़ प्राकृतिक रूप से काफी संपन्न इलाका है। छत्तीसगढ़ में जमीन के नीचे लोहा, रेड डायमंड व और भी खनिज सम्पदा पाई जाती है। क्योंकि हमारी पूरी कि पूरी राजनीतिक जमात कॉर्पोरेटों के प्रति नक्मस्तक है इसलिए इन सब खनिज सम्पदा को कॉर्पोरेट के हवाले करना चाहती है। और आदिवासी ये होने नहीं देना चाहते। इसलिए वहां इतनी फाॅर्स की तैनाती है और यही इस पूरी लड़ाई का कारण है।

आदिवासियों के लिए जंगल उनके जीवन का अहम हिस्सा है, पेड़ उनके जीवन पद्धति से जुड़ा है। जिस औद्योगीकरण को हम विकास मानते है उनके लिए वो विनाश है। असल में देखा जाये तो आज आदिवासियों का मुद्दा सिर्फ उनका ही मुद्दा नहीं है बल्कि वो तो आज पूरी मानव सभ्यता को ही बचाने के लिए लड़ रहें हैं। प्रकृति के साथ खिलबाड़ करके उन्हें विकास मजूर नहीं है। जिस सतत विकास की बात दुनिया कुछ सालों से कर रही है वो सतत विकास तो आदिवासी हजारों सालों से ही करता हुआ आया है।

आज हमारे इस तथाकथित सभ्य, विकसित और शिक्षित समाज को तथाकथित अविकसित समाज से जरुरत है बहुत कुछ सीखने की। कुछ सालों से देश में आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने की बहुत बातें हो रही हैं लेकिन आज की जरुरत क्या है आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ना या उनकी जीवन पद्धति को मुख्यधारा बनाना? इस पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है।   

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