अध्याय -1 राजस्थान का साम्प्रदायिक परिदृश्य
अध्याय -2 मेवातः इतिहास बनाम आख्यान
अध्याय -3 1857 और 1947: सहमेल और विपर्यय
अध्याय -4 6 दिसम्बर 1992 और उसके बादः दुःस्वप्न की वापसी
अध्याय -5 साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः समाजार्थिक व सांस्कृतिक कारक
अध्याय -6 साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के उपक्रम
अध्याय -7 शांति और सह-जीवन: प्रस्तावित कार्ययोजना व रणनीतियां
साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के उपक्रम
6 दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद उभरी साम्प्रदायिकता राजस्थान के भरतपुर-अलवर क्षेत्र में हिंसक रूप नहीं ले पायी। यद्यपि यहां उसके बाद साम्प्रदायिक तनाव व द्वन्द्व की अनेक घटनाएं सामने आयीं और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण में एकाएक तेजी आयी। गुजरात के दंगों (2002) के समय भी कहीं-कहीं साम्प्रदायिक तनाव फैला। साम्प्रदायिकता को हिंसा के रूप में फैलने देने में यहां कई कारक मुख्य नजर आते हैं। प्रथम, तो हरियाणा मेवात क्षेत्र की तुलना में यहां मेव समुदाय की आबादी काफी कम है। कामां जैसे एकाध विकास खण्ड में मेव समुदाय अच्छी तादाद में है लेकिन वहां हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें भी काफी सक्रिय हैं। इससे एक शक्ति-संतुलन जैसी स्थिति बनी हुई है। दूसरे, 1947 में विभाजन के समय इसी क्षेत्र (अलवर-भरतपुर) के मेव हिंसा से पीड़ित रहे थे। उस त्रासदी की स्मृतियां अभी भी यहां जिंदा हैं। मेव, बल्कि कहना चाहिए कि अधिकतर लोग यहां वैसी हिंसा की पुनरावृत्ति नहीं चाहते। वे ऐसी किसी भी कार्यवाही के प्रतिकार में तत्पर रहते हैं। तीसरे, साम्प्रदायिक शक्तियों के बरक्स यहां ऐसे व्यक्ति और संगठनों की कतार है जो साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खड़े होते हैं। और आखिरी कारक यह कि राजस्थान के मानव अधिकार संगठनों की इस क्षेत्र पर नजर रहती है और स्थानीय धर्म निरपेक्ष व्यक्तियों व संगठनों से इनके सम्पर्क हैं। 1992 में रामगढ़, तिजारा, कामां ऐसे क्षेत्र हैं जहां माहौल बिगाड़ने के काफी प्रयास किये गये लेकिन स्थानीय लोगों ने इन्हें सफल नहीं होने दिया। अलवर में शांति बनाये रखने में प्रगतिशील लोगों वे संगठनों की जागरुकता और सक्रियता ने भी अहम भूमिका निभायी ।इन संगठनों में प्रगतिशील लेखक, संघ, साम्प्रदायिक सद्भाव मंच, इप्टा, भारत ज्ञान विज्ञान समिति व अन्य स्थानीय सांस्कृतिक संगठन शामिल थे। इन्होंने लोगों को एकजुट बनाये रखने के प्रयास किये, जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं और विचार-गोष्ठियां कीं।
कई ऐसे आंदोलन रहे हैं जिनमें हिन्दू और मेवों ने मिलकर संघर्ष किया है। अलवर के सारेखुर्द गांव में केडिया समूह द्वारा एशिया का सबसे बड़ा शराब कारखाना लगाया जा रहा था। इसके लिए उन्होंने केराल डगलस इ. लि. व कैलाश डगलस इ. लि. के नाम से सारेखुर्द व लाडपुरा गांव की 425 बीघा जमीन किसानों से प्रशासनिक दबाव द्वारा खरीद ली। आजादी बचाओ आंदोलन ने किसानों की जमीनें बचाने के लिए संघर्ष किया जिसमें हिन्दू, मेव व दलित किसानों ने एकजुटता दिखायी। पुलिस व प्रशासनिक दमन के बाद भी आन्दोलन दबा नहीं और केडिया समूह को पीछे हटना पड़ा। यहां जमीन पर किसानों का कब्जा बरकरार रहा। जिन किसानों ने जमीन की कीमत ले ली थी उन्होंने उसे लौटा दिया। इसी तरह राजस्थान-हरियाणा सीमा पर नौगांवा कस्बे के पास दोआ रावली गांव में सन् 2000 में पशुओं की हड्डी पीसने की फैक्ट्री लगाये जाने का स्थानीय हिन्दू व मेव समुदायों ने विरोध किया। हालांकि इस फैक्ट्री का मालिक हिन्दू था। विरोध का परिणाम यह हुआ कि फैक्ट्री मालिक को आखिर यहां फैक्ट्री लगाने का इरादा बदलना पड़ा। पुन्हाना के नहरी क्षेत्र के गांवों में सिंचाई के लिए पानी की समस्या को लेकर हिन्दू व मेव किसान मिलकर आंदोलन चला रहे थे हालांकि उनकी मांग मानी नहीं गयी थी। वहां एक हिन्दू बहुल गांव में वर्षा के लिए यज्ञ किया जा रहा था जिसमें मेव समुदाय के अनेक स्त्री-पुरुष शामिल थे।
ऐसे भी प्रकरण हैं जिनमें स्थानीय लोगों ने साम्प्रदायिक हिंसा को रोका है। 1999 में शिवरात्रि के दिनों में कुछ हिन्दू कावडिये सीकरी कस्बे से गुजर रहे थे। उन्हें कुछ मेव बच्चों ने छेड़ दिया। साम्प्रदायिक तत्वों ने कावडियों पर हमले की अफवाह फैला दी। इससे उग्र कुछ युवकों ने मील के मदरसे की गाडी को रोक लिया और उसमें आग लगाने का प्रयास करने लगे। स्थानीय युवकों ने ही इसका विरोध किया और गाड़ी को सुरक्षित रवाना करवाया।
हरियाणा में तावडू विधान सभा क्षेत्र के सूबाखेडी गांव में कुछ जाटवों ने एक मेव विवाहिता से बलात्कर कर उसकी हत्या कर दी। आरोपियों के पविार से ही एक वृद्ध ने जाकर थाने में इस कृत्य की रिपोर्ट दर्ज करायी। जबकि सूबाखेड़ी में जाटवों का बहुमत है और मेव अल्पमत में हैं। अलवर के मत्स्य औद्योगिक क्षेत्र (एम.आई.ई.) में आने वाले जुलैटा गांव में पंजाबियों व सिखों की आबादी ज्यादा है। उन्होंने अप्रैल 2001 में गांव में एक गुरुद्वारा बनाना शुरू किया। इसकी नींव में कब्रें निकल आयीं क्योंकि शायद यहां पहले कब्रिस्तान रहा होगा। इसे लेकर तनाव हो गया। लेकिन एक पंजाबी व्यक्ति ने गुरूद्वारा बनाने के लिए अपना खेत देकर इस विवाद को सुलझाया।
साम्प्रदायिकता के विरूद्ध उक्त स्वतः स्फूर्त प्रयासों के अलावा इस क्षेत्र में कुछ सुनियोजित कोशिषें भी हुई हैं। नवें दशक में प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनिकरण के लिए संचालित लोक जुम्बिश परियोजना द्वारा कामां में किये गये प्रारंभिक सर्वेक्षण में पाया गया कि मेव समुदाय में कोई भी बालिका ऐसी नहीं थी जिसने आठवीं उत्तीर्ण की हुई हो। दो साल की कठिन मेहनत के बाद कामां के स्कूलों में बच्चों को नामांकन 28 प्रतिशत बालक व 11 प्रतिशत बालिकाओं से बढ़कर 82.21 प्रतिशत बालक और 57 प्रतिशत बालिकाओं तक पहुंच गया। दुर्भाग्य से यह परियोजना बीच में बंद हो गयी। अलवर जिले में साक्षरता अभियान द्वितीय चरण में आंरभ हुआ था। इसमें उत्तर साक्षरता/सतत शिक्षा कार्यक्रम के लिए प्रेरकों की भर्ती हुई। आवेदनकर्ताओं में एक भी मेव महिला 10 वीं पास नहीं थी। साक्षरता अभियान में मुल्ला-मौलवियों की भूमिका को लेकर कमलेश शर्मा दिलचस्प बात बताते हैं। उनके अनुसार ये सार्वजनिक तौर पर अक्सर दुनियावी तालीम का समर्थन करते हैं लेकिन व्यवहार में इस काम में मदद नहीं करते। मेवों में पढ़ा-लिखा एक तबका खुद मौलवियों के खिलाफ है। ये लोग खुद अपने परिवार के बच्चों को मदरसे नहीं भेजते। मदरसों में गरीबों के बच्चे, विशेषकर लड़कियां हैं और भारी तादाद में हैं। इनका दिन का समय तो वहां निकल जाता है फिर स्कूलों में कैसे पढ़ेंगी। इन बच्चों की औपचारिक शिक्षा में मुल्ला-मौलवी दिल से कभी सहयोग नहीं करते। इस संदर्भ में पारंपरिक तरीका, कि मुल्ला-मौलवियों व समुदाय के तथाकथित प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सहयोग लें, काम नहीं करता क्योंकि वास्तविकता में ये लोग समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते। ये लोग निहित स्वार्थों का अथवा किन्ही और का प्रतिनिधित्व करते हैं। बेहतर यही है कि जरुरतमंद लोगों में सीधे काम शुरु किया जाये और वहां से ‘चेंज एजेन्ट‘ निकाले जायें।
स्वयंसेवी संगठन/संस्थाएं भी मेवात में विकासात्मक कार्यों के जरिये साम्प्रदायिकता के शमन का कार्य कर रही हैं। अलवर की संस्था ‘मत्स्य-मेवात विकास एवं शिक्षा समिति‘ ने मेव समुदाय से युवाओं का एक ऐसा समूह निकाला है जो अपने समुदाय को ‘बंद समाज‘ (closed society) बनाने वाली शक्तियों से निरंतर द्वन्द्व करता है। यह संस्था दोनों तरफ की साम्प्रदायिक शक्तियों का लगातार सक्रिय विरोध करती रही है।
अलवर के ग्रामीण क्षेत्र में ‘इब्तिदा‘ संस्था ने महिलाओं के लिए सूक्ष्म वित्त (micro-credit) और शिक्षा के लिए 1997 से कार्य शुरु किया। नौगावां क्षेत्र के मौलवियों और मेव मुखियाओं ने इसका यह कहकर विरोध किया कि ब्याज लेना व देना हमारे धार्मिक उसूलों के खिलाफ है। इन्होंने इब्तिदा की तालीम शालाओं में बच्चों के साथ की जाने वाली गीत – कविताओं , नृत्य – नाटक इत्यादि पर धार्मिक आधार पर आपत्तियां उठायीं। बीसरु की मेवात सोशन एजुकेशन डेवलपमेंट सोसायटी के सामने भी मौलवियों ने अवरोध पैदा किया। लेकिन वहां सभी महिला बचत समूह अब अच्छा काम कर रहे हैं। इनकी कुल बचत डेढ़ करोड़ है। 1997-98 से इन्होने 70 लाख ब्याज से अर्जित किया है। आज औरतें अपने खातों का खुद संचालन कर रहीं हैं।
डीग क्षेत्र में कार्यरत सार्ड-दि सोसायटी फोर ऑल राउन्ड डेवलेपमेंट-को आगा खां फाउन्डेशन से वित्तीय सहयोग मिल रहा है। जमात-ए-इस्लामी ने क्षेत्र में पत्र भेजकर यह प्रचारित किया कि इस संस्था का गुलाम अहमद कादयानी से संबंध है जिसने कभी स्वयं को इस्लाम का पैगम्बर घोषित किया था। ये मेवों को काद्यानी बनाना चाहते हैं। स्थानीय समुदाय ने ही इस दुष्प्रचार का मुकाबला करने में पहल की और सार्ड के विकास कार्यों में हर तरह से सहभागिता की। ‘डे टू डे डेवलपमेंट सोसायटी‘ अलवर से प्रेरित बाखेडा गांव की मेव किशोरियों की बातें सुखद भविष्य का संकेत देती हैं। ये नौकरी करना चाहती है ताकि अपने पैरों पर खडी हो सकें। ये साम्प्रदायिक उन्माद का संकेत देती हैं। इन्होंने दहेज का विरोध किया तथा कहा कि वे दहेज नहीं ले जायेंगी। उन्हें पता है कि कुरान में दहेज निषेध है। दो किशोरियों ने तो यहां तक कहा कि वे कोर्ट मैरिज की पक्षधर हैं।
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