मेवात में साम्प्रदायिकरण – एक सांस्कृतिक अध्ययन :- राजाराम भादू (भाग -५)

अध्याय -1 राजस्थान का साम्प्रदायिक परिदृश्य 

अध्याय -2 मेवातः इतिहास बनाम आख्यान

अध्याय -3 1857 और 1947: सहमेल और विपर्यय

अध्याय -4 6 दिसम्बर 1992 और उसके बादः दुःस्वप्न की वापसी

अध्याय -5 साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः समाजार्थिक व सांस्कृतिक कारक

अध्याय -6 साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के उपक्रम

अध्याय -7 शांति और सह-जीवन: प्रस्‍तावित कार्ययोजना व रणनीतियां

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः समाजार्थिक व सांस्कृतिक कारक

क्षेत्र के एक-तिहाई मेव कृषि पर निर्भर हैं। एक अध्ययन के अनुसार मेव किसानों के पास बड़ी जोत (जिनके पास दस हैक्टेयर से ज्यादा जमीन हो) नहीं हैं। मध्यम जोत वाले किसानों (जिनके पास 2 से 10 हैक्टेयर जमीन हो) का प्रतिशत 8 था जबकि छोटे किसान (1 से 2 हैक्टेयर) 12 प्रतिशत थे। 40 प्रतिशत परिवार सीमान्त किसानों की श्रेणी में आते हैं (जिनकी जमीन एक हैक्टेयर से कम थी)। साथ ही 40 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं। खेती की जमीन का वितरण समान नहीं है। कम भूमि वाले 67 प्रतिशत किसानों के पास कृषि लायक भूमि का कुल 30 प्रतिशत भाग ही है। हालांकि 73 प्रतिशत खेतों में सिंचाई की सुविधा है। लेकिन इस बात के साफ संकेत मिल रहे हैं कि भूजल का भारी दोहन हो रहा है। मेवात में कुल दस से पांच विकास खण्डों को राज्य भूजल बोर्ड ने ’डार्क’ श्रेणी में रखा है। अरावली पर्वतमाला के इलाके में भूक्षरण की समस्या है। साथ ही यहां की जमीन में नमक की मात्रा भी अधिक है।

हरियाणा में मेवात विकास बोर्ड (1980) और राजस्थान विकास बोर्ड (1987-88) का गठन हुए अरसा हो गया लेकिन इनसे क्षेत्र के विकास के संकेत कमोबेश प्रभावहीन रहे। विकास के अन्य मदों का बजट संदर्भित सरकारों द्वारा इन बोर्डों को आवंटित कर दिया गया। प्रथम तो यह बजट क्षेत्र की आवश्यकताओं के लिहाज से काफी कम रहा है। दूसरे, यह भी पूरा खर्च नहीं होता रहा जो बोर्ड के कामकाज की उदासीनता को दर्शाता है। इन बोर्डों को लेकर हिन्दू सम्प्रदायवादी यह भी प्रचारित करते रहे हैं कि ये केवल मेव समुदाय के लिए ही काम करते हैं जबकि वास्तव में इनका लक्ष्य क्षेत्रीय विकास रहा है। मेव समुदाय अपनी सामाजिक संरचना के स्तर पर हिन्दुओं की तरह गोत्रों व पालों को मानता रहा है। इसकी 12 पालें और एक पल्लाकडा है तथा इनके 52 गोत्र हैं। पाल इनकी पारंपरिक व्यवस्था है जो जनजातीय कबीलों से मेल खाती है हालांकि अब इस व्यवस्था का क्षरण हो चुका है।

विवाह के समय मेव समुदाय अपने गोत्र को बचाता है। शादी में निकाह के माध्यम से वर-दुल्हन के बीच रिश्ता स्थापित किया जाता है। आजादी के पहले तब मेवों और इतर हिन्दु समुदायों की शादी-विवाह के अनेक रीति-रिवाजों में समानताएं थीं। बारात को भोज दिये जाते समय मेव महिलाएं उसी तरह गाली-गीत गाती थीं, जैसे के हिन्दू महिलाएं गाती हैं। इसी तरह चाक पूजन व भात पहनाने की प्रथा मेव समुदाय में भी प्रचलित रही है। सामाजिक दृष्टि से मेव अपने को एक अलग स्वतंत्र जाति महसूस करते हैं। उनकी अपनी अलग बोली (मेवाती) रही है, उनकी अपनी अतीत-कथाएं हैं, अलग संस्कार हैं। इस दृष्टि से मुस्लिम समाज से भी वे एक तरह से पृथक से ही हैं। मुख्यधारा के मुस्लिम मेव समुदाय को ’शुद्ध’ नहीं मानते और इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। दूसरी ओर हिन्दू इन्हें मुस्लिम मानते हैं और इनके प्रति ’अन्यता’ का भाव रखते हैं। विडम्बना यह है कि मुस्लिम सेवक जातियों- फकीर, सक्का, दरवेश, बढ़ई, नाई इत्यादि को मेवों द्वारा भी नीचा माना जाता है। यहीं नहीं, ये लोग हिन्दू दलित जातियों के प्रति भी कमोवेश वैसा ही दृष्टिकोण रखते हैं जैसाकि सवर्ण हिन्दू।

किसी समाज में महिलाओं की कितनी कद्र होती है इसका संकेत लिंग-अनुपात से मिलता है। राजस्थान और हरियाणा दोनों ही राज्यों का लिंग अनुपात राष्ट्रीय औसत से कम है। हरियाणा का लिंग अनुपात तो देश भर में सबसे कम है। अलवर में 1961 में प्रति एक हजार पुरुषों के अनुपात में 892 महिलाएं थीं। उसके बाद यह संख्या कम हुई और 1971 की गणना में 887 पर पहुंच गयी। घटने-बढ़ने के बाद 2001 की गणना में यह अनुपात सिर्फ 887 है। भरतपुर जिले में भी दृष्य खुशनुमा नहीं रहा। 1961 की जनसंख्या में यहां प्रति हजार पुरूषो पर सिर्फ 859 महिलाएं थी और 2001 की गणना में यह आंकड़ा केवल 857 है। मेवात का लिंग-अनुपात तो और भी कम है।

मेवात में मेव महिलाओं की साक्षरता दर (08 प्रतिशत) शेष समुदायों की महिलाओं की तुलना में कम है। हरियाणा और राजस्थान राज्यों की महिला साक्षरता दर वैसे भी राष्ट्रीय औसत से कम है। मेवात में मेव और गैर-मेव परिवारों में घरेलू हिंसा आम है। पतियों द्वारा पत्नियों की पिटायी सामान्य बात है। वे उन्हें अपने माता-पिता, ससुराल वालों और बच्चों के सामने छोटी से छोटी बात पर पीट देते हैं। मेव समुदाय के कट्टरवादी लोग इस्लाम की व्याख्या सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका सीमित करने हेतु करते हैं।
मुस्लिम मुल्ला-मौलवियों के प्रभाव से मेव समुदाय हिन्दू रीति-रिवाजों से भले ही किनारा करता जा रहा है लेकिन एक ऐसा रिवाज है जिसे इसने छोड़ने के बजाय और पुख्ता किया है। यह है लड़के की शादी मे दहेज लेने का रिवाज। मुस्लिम धर्म मे दहेज एक प्रकार से निषेध है बल्कि दुल्हन की ओर से ही मेहर की रकम तय की जाती है। जबकि मेव समुदाय में दहेज लेना सामान्य बात है जो मोटर साइकिल से मारुति तक प्रतिष्ठा से जुड़ा है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि मेव समुदाय में शादियां मौलवियों द्वारा मुस्लिम रस्मो-रिवाज से करायी जाती हैं, फिर भी दहेज के प्रति वे आंखें मूंदे रहते हैं। दूसरी ओर, मेव समुदाय में स्त्रियों में पर्दे का चलन नहीं रहा। लेकिन इधर औरतों में पर्दे का चलन बढ़ा है यद्यपि अभी भी यह एक खास तबके तक सीमित है।

मेवात में घरेलू स्त्रियों को ’बैरवानी’ कहा जाता है। इन घरेलू स्त्रियों की दुनिया में कुछ और स्त्रियों ने भी दखल कर लिया है जिन्हें ’पारो’ कहा जाता है। ये ’जमना पार’ से रुपयों के बदले में ब्याह कर लायी गयी महिलाएं हैं। दस-बारह सालों में इनकी संख्या यहां इतनी हो गयी है कि अब इनके लिए स्थानीय शब्दावली में ’पारो’ शब्द ने जगह बना ली है। ’पारो’ यहां ’बैरवानी’ के लिए संकट बन गयी है क्योंकि कई लोग अपनी ’बैरवानी’ को छोड़कर ’पारो’ ले आते हैं। मेवात के गांव में मेव और गैर मेव समुदायों में दस से बीस तक ’पारो’ मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यहां तक कि मीरासी, फकीर, दीवान और हिन्दू दलित समुदायों में हैदराबाद, पश्चिम बंगाल, असम और बिहार से लायी गयी औरत मिलना सामान्य बात है। कभी बाहर की स्त्री के लिए प्रयुक्त किये गये ’जमना पार’ पद की सीमा अब बहुत आगे बढ़ गयी है। एक सर्वेक्षण से प्राप्त सूचनाएं यह बताती हैं कि हारी-बीमारियों की रोकथाम, खासकर बाल व मातृ टीकाकरण, गर्भावस्था के दौरान देखभाल और सुरक्षित प्रसव आदि की जागरुकता समुदाय में कम है। समुदाय काफी हद तक पुरुषों, औरतों और बच्चों की बीमारी में प्रारंभिक इलाज के लिए अप्रशिक्षित निजी चिकित्सकों और मुल्ला-मौलवियों पर निर्भर है। मुल्ला-मौलवी करीब-करीब हर बीमारी के लिए नक्ष या गंडा-ताबीज दे दते हैं और कुछ बीमारियों को रुहानी (प्रेत-बाधा) घोषित कर देते हैं। परम्परागत उपचारक जैसे वैद्य, हकीम व दाइयां भी सक्रिय हैं। दाइयों का निजी चिकित्सकों से सम्पर्क है जिससे हानिकारक तौर-तरीकों को भी बढ़ावा मिल रहा है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुंच सीमित है। इसके कई कारण हैं-स्वास्थ्य सेवाओं का घटिया स्तर, उनका दूर होना और महिला चिकित्सकों का अभाव आदि।

जेसुइट शिक्षण संस्थाओं के नियमों में, जो इतिहास में आज तक दर्ज हैं, एक नियम इस प्रकार था, ’यदि धर्मतंत्रात्मक चर्च सफेद को काला कहता है तो हमें मानना चाहिए कि वह काला है………… अपने को विश्वास दिलाना चाहिए कि यह सब ठीक है और अंधभक्त की तरह अपनी खुद की सभी रायें छोड़ देनी चाहिए। कुछ इसी तरह की धार्मिक शिक्षा के लिए दो तरह की विचारधारा रखने वाले लोग मेवात में आते हैं। पहली विचारधारा ’बरेलवी’ जमातियों की है, दूसरी देवबंदी जमातियों की। इन्हें ’जमात’ कहते हैं और इनके द्वारा दी गयी शिक्षा ’तब्लीग’ (धर्म-प्रचार) कहलाती है।

तब्लीगी जमातें मेवों को इस्लामिक कायदों को अपनाने और हिन्दू परम्पराएं त्यागने का संदेश देती हैं। मेवों को कहा जाता है कि वे कुरान शरीफ के कहे अनुसार अपनी जिन्दगियां जिएं, दिन में पांच बार नमाज पढ़ें, रोेजे रखें। मेलों में हिस्सा न लेवें और केवल मुस्लिम त्यौहार मनाऐं। नाच-गाने से बचें, ऐसे आयोजनों में न जाएं। गोत्र में शादी-ब्याह करें और कब्रों की पूजा न करें। ये अपनी जानकारियां उर्दू भाषा में ही सम्प्रेषित करते हैं। जमात के लोग कुरान-शरीफ की आयतें पढ़ाने के साथ-साथ ’बहिश्ते-जेवर’, ’दोजख का खटका’, ’तालिमुल इस्लामः छह बातें’, ’इस्लाम क्या है’ आदि किताबों से भी मजहबी शिक्षा देते हैं।


हर एक मुस्लिम के लिए मजहबी तालीम जरुरी मानी जाती है। सभी मेव गांवों में स्थानीय इमाम बच्चों की तालीम के लिए जिम्मेदार होता है। मजहबी तालीम की दो तरह की संस्थाएं हैंः (1) गांव स्तर के मकतब, जो अमूनन स्थानीय मस्जिद से जुड़े होते हैं। यहां इमाम पढ़ाता है। (2) आवासीय मदरसे, जहां बच्चों के रहने, खाने-पीने और तालीम की व्यवस्था होती है। मदरसों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे समाज के वंचित तबकों से हैं। मदरसों में 10-12 साल से भी छोटे बच्चों को पढ़ाया जाने लगता है। मदरसों से मौलवियों के निहित स्वार्थ जुड़े हैं। मौलवी चंदाजीवी प्राणी हैं। वे मुस्लिम समुदाय के चंदे पर निर्भर हैं। धार्मिक कट्टरता की स्थिति में उनका महत्व बढ़ता है। मौलवियों की कोई सामाजिक जवाबदेही नहीं है। मेवात में मस्जिद और मदरसों का जाल फैला है। इन्होंने मेव समुदाय में आधुनिक शिक्षा को रोका है और बच्चों को सिर्फ दीनी-तालीम तक सीमित कर दिया।
कुछ प्रगतिशील मेवों की पहल पर अलवर जिले में मदरसा बोर्ड से 80 शिक्षक मदरसों में लगवाये। मौलवियों ने इसका विरोध किया। इन शिक्षकों में 10 शिक्षक दलित जातियों के थे, इनको मौलवियों ने मस्जिदों में घुसने नहीं दिया। उनका तर्क था कि ये मस्जिद को अपवित्र कर देंगे। वास्तव में उन्हें डर था कि मदरसों पर उनका वर्चस्व खत्म हो जायेगा। उन्हें कहा गया कि ये लोग साफ-सुथरे हैं और यहां स्थायी रूप से थोड़े रहेंगे। लेकिन मौलवी नहीं माने। अंत में यह तय हुआ कि हिन्दू शिक्षक मस्जिदों से बाहर किराये पर कमरा लेकर रहेंगे। सामान्य शिक्षा और समानान्तर धार्मिक शिक्षा के बीच चल रहे द्वन्द्व का हश्र यह हुआ कि 1991 में भरतपुर जिले की साक्षरता दर 43 प्रतिशत थी जिसमें 62 प्रतिशत पुरुष और 19 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर थीं। वहीं मेव बहुल कामां विकास खण्ड की साक्षरता दर मात्र 22 प्रतिशत थी जिसमें मात्र 4.5 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं। कामां के कुल 204 गांवों में से 45 गांवों में एक भी महिला पढ़ी-लिखी नहीं थी। 20 गांव ऐसे थे जहां काई महिला-पुरुष साक्षर नहीं था। हरियाणा के मेवात क्षेत्र में साक्षरता दर 44.9 प्रतिशत है जबकि इसकी तुलना में गुडगांव में 75.34 प्रतिशत और हरियाणा-मेवात में महिला साक्षरता दर महज 25.1 प्रतिशत है जबकि गुड़गांव जिले की 62.85 और समूचे हरियाणा की 55.73 प्रतिशत है।


भरतपुर जिले के मेवात अंचल में जब सितम्बर 1993 से साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया तो उसका गांव के मौलवियों और मेव मुखियाओं ने विरोध किया। उन्होंने हिन्दी पढ़ने को बेदीन का होना बताया। साक्षरता में काम करने वाले व्यक्तियों को हिन्दू धर्म का प्रचार करने वाले जमाती कहा। स्वयंसेवकों को कहा गया कि तुम हिन्दी पढ़ाकर हमारा दीन खराब कर रहे हो। तुम तो दोजख में जाओगे ही हमें भी पहुंचाओगे। इस प्रकार मौलवियों और जमातियों के प्रचार ने साक्षरता कार्यक्रम को एक हद तक अप्रभावी बना दिया।
क्षेत्र में साम्प्रदायिक तनाव का एक कारण गौ-वध भी है। गो-वध राजस्थान और हरियाणा की राज्य सरकारों द्वारा प्रतिबंधित है। लेकिर ’अंदर मेवात’ (हरियाणा के मेवात का अंदरुनी भाग) में गौ-वध होता है, इस तथ्य को मेव समुदाय के प्रतिनिधि भी स्वीकारते हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार राजस्थान व हरियाणा के सिरसा और नारनोल से गायें मेवात के इस क्षेत्र में लायी जाती हैं और यहां गौकशी की जाती है। गाय की खरीद फरोख्त और इसके चमड़े के व्यापार में हिन्दू भी शामिल होते हैं जबकि गाय काटने और उसका चमड़ा उतारने का काम मेव/मुसलमान करते हैं। गाय का चमड़ा बहुत मंहगे दामों में बिकता है, इसमें मुनाफा जुड़ा है। दूसरी ओर गरीब मेवों को मांस सस्ते में (मात्र 10 रुपये किलो) उपलब्ध हो जाता है। गौवध में कई बार पुलिस की भी मिली-भगत होती है। गौवध को लेकर मेवात में अक्सर साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएं होती हैं। ऐसी घटनाओं में कई बार मेव समुदाय और पुलिस के बीच भी झड़पें हो जाती हैं।

मेवात के राजस्थान व हरियाणा दोनों ही क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ओर इसके अनुषंगी संगठन- विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल व शिवसेना आदि सक्रिय हैं। और निरन्तर अपना प्रभाव-विस्तार कर रहे हैं। राजस्थान की संघ शाखा में मेवात के लिए एक विशेष प्रकोष्ठ बनाया हुआ है और इसका कामकाज एक पूर्णकालिक व्यक्ति देखता है। इस एक देश में इन संगठनों ने बराबर यह प्रचारित किया है कि मेवात में पाकिस्तानी संस्था आईएसआई के अड्डे हैं, यहां तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की साजिश रची गई। मेव गाय और मोरों को मार रहे हैं। यहां मदरसों में आतंकवादी तैयार किये जा रहे हैं। गांव में हिन्दुओं को मस्जिदों की होड़ में मंदिर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। उन्हें विभिन्न अवसरों पर शोभायात्रा व झांकियां निकालने के लिए प्रेरित किया जाता है। मेव संत लालदास को हिन्दू बताते हुए जून 2004 में एक शोभायात्रा निकाली गयी, जो सैकड़ों गांवों से होकर गुजरी।

साम्प्रदायिक तनाव एवं द्वन्द्व के कुछ प्रसंगों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः
ऽ रामगढ़ के तलावणी गांव में 1 मई 2004 को एक जटसिख की गाय एक मेव के खेत में मृत पायी गयी। गांव के साधु ने मेव पर गौहत्या का आरोप लगाया लेकिन बाद में साधु झूठा निकला।
ऽ संत चूडसिद्ध के मजार पर बकरों की बलि का 2003 में शिव सैनिकों ने विरोध किया। यहां बकरों की बलि देने की पुरानी परम्परा है। स्थानीय गांव वालों ने बलि का स्थान मजार से थोड़ा दूर करके मामला सुलझाया।
ऽ रामगढ़ के खोहेड (करमाली) गांव में एक जाटव की लड़की एक मेव युवक के साथ भाग गयी। इस घटना को लेकर हिन्दू कट्टरपंथियों ने दलित समुदाय को भड़काने की कोशिषें की लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। (नवंबर 2003)
ऽ शेरगढ़ में संत लालदास की मजार पर हिन्दू बनियों ने साम्प्रदायिक संगठनों की मदद से ट्रस्ट बनाकर कब्जा कर लिया जबकि संत लालदास का जन्म एक मेव परिवार में हुआ था।
ऽ खैरथल के चोरडी पहाड़ी गांव में गुर्जर व मेवों के बीच झगड़ा हुआ। इसमें पुलिस ने सिर्फ मेवों को गिरफ्तार किया और पक्षपातपूर्ण रवैया दर्शाया। (2004)
ऽ रामगढ़ के नीकचपुर गांव में इजरायल मेव ने जब एक जाटव को खेत से चने की चोरी करते पकड़ लिया तो उसने उलटा मेव पर जातिसूचक अपशब्द कहने का मुकदमा लगा दिया। इसमें जाटव को कट्टरपंथियों की शह थी। (अक्टूबर, 2003)
ऽ अक्टूबर 2004 में ककराली गांव में हुए नकली सोने की ईंट बिक्री कांड में पुलिस ने मेवों के खिलाफ कार्यवाही की जबकि इसमें लिप्त हिन्दू व्यापारी व दलाल को छोड़ दिया। इस पर मेव समुदाय ने विरोध प्रदर्शन किया।
ऽ जनवरी 2005 में नौगावां के रसगन गांव व तिजारा के जंगलों में गौकशी काण्ड में पहले सिर्फ मेवों के खिलाफ पुलिस कार्यवाही हुई। मेवों के आंदोलित होने पर ही हिन्दू अपराधियों को पकड़ा गया।
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि साम्प्रदायिक ताकतों के अलावा स्थानीय प्रशासन व पुलिस का रवैया भी मेव समुदाय के प्रति पक्षपातपूर्ण है। प्रशासन व पुलिस तंत्र में इस समुदाय की नुमाइंदगी नगण्य है।

छठे अध्याय के लिए जुड़े रहें….

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