मेवात में साम्प्रदायिकरण – एक सांस्कृतिक अध्ययन :- राजाराम भादू (भाग -३)

अध्याय -1 राजस्थान का साम्प्रदायिक परिदृश्य 

अध्याय -2 मेवातः इतिहास बनाम आख्यान

अध्याय -3 1857 और 1947: सहमेल और विपर्यय

अध्याय -4 6 दिसम्बर 1992 और उसके बादः दुःस्वप्न की वापसी

अध्याय -5 साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः समाजार्थिक व सांस्कृतिक कारक

अध्याय -6 साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के उपक्रम

अध्याय -7 शांति और सह-जीवन: प्रस्‍तावित कार्ययोजना व रणनीतियां

1857 और 1947: सहमेल और विपर्यय

ब्रिटिश पूर्व काल में मेवाती रियासतों के मेव सरदार ’खानजादों’ की विभिन्न रियासती शासकों से लड़ाई के वृत्तान्त मिलते हैं। इनमें हसल खां मेवाती की शौर्यगाथाएं ख्यात हैं जिसने बाबर से लड़ाई लड़ी। मुस्लिम शासकों से मेव सरदारों का संघर्ष यह बताता है कि मेव इस्लाम से नियंत्रित न होकर स्थानीय हितों के प्रति कहीं अधिक आग्रहशील थे। किन्तु 1857 का स्वतंत्रता संघर्ष मेव इतिहास का ऐसा निर्णायक दौर है जिसमें मेव हिन्दुओं के साथ मिलकर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध एक व्यापक जन-विद्रोह में हिस्सेदारी करते हैं और इसकी भारी कीमत चुकाते हैं। शायद इसी का नतीजा था कि ब्रिटिश शासन ने मेव समुदाय को जरायमपेशा जातियों में अनुसूचित कर दिया। 1947 में भारत विभाजन के समय मेवात में 1857 का विपर्यय देखने को मिलता है। नौ दशक पहले ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जो हिन्दू और मेव एकजुट होकर संघर्ष कर रहे हैं, विभाजन के दौर में उन्हीं के बीच मारकाट होती है। इसको स्थानीय भाषा में ’सफाया’ कहा गया है, कुछ लोग इसे ’कट्टी’ भी कहते हैं जिसमें हिन्दुओं ने समूहों में मेवों पर आक्रमण किया। भरतपुर में सरकारी आंकड़े 30 हजार मृत मेव बताते हैं। अलवर में 1961 में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 52,803 थी जबकि 1872 में प्रथम जनगणना में यह संख्या 1,51,727 थी। अर्थात् 90 वर्ष बाद भी यह संख्या बढ़ने की बजाय घटकर आधी रह गयी। यह उक्त सफाये का ही परिणाम था।

इस मारकाट को शैल मायाराम ने ’जेनोसाइड’ की संज्ञा दी है यानि एक पूरी कौम का नामोनिशान मिटाने की कोशिश। साम्प्रदायिक हिंसा की इस भयंकर घटना से पहले अलवर और भरतपुर में प्रजा मण्डल के नेतृत्व में बढ़ी हुई लगान दरों के विरुद्ध एक उग्र और व्यापक किसान आंदोलन चला था। मेव नेता यासीन खां और कंवर मोहम्मद अशरफ ने इस आंदोलन की अगुवाई की। कंवर मोहम्मद अशरफ ने ’मेवात की स्वायत्तता’ को इस आंदोलन का एजेण्डा बना दिया। उनकी इस मांग को पाकिस्तान की मांग से जोड़कर देखा गया और अलग ’मेविस्तान’ या दूसरे ’मिनी पाकिस्तान’ की मांग के रूप में प्रचारित किया गया। इस आंदोलन को कुचलने के लिए भरपुर और अलवर के तत्कालीन शासकों ने भी ऐसे प्रचार को हवा दी। उन्होंने मेव व हिन्दुओं में फूट डालने के लिए कट्टरपंथी हिन्दू ताकतों को शह दी। इसी समय भरपुर रियासत की मदद से आर्य समाज की ओर से ’शुद्धि अभियान’ चलाया गया। इधर अलवर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सक्रिय हो गया। तब्लीगी जमात जो मेवात में पहले ही अपने पैर नहीं जमा पा रही थी और किसान आंदोलन के चलते निष्प्रभावी थी उसे प्रतिक्रिया में पुनर्जीवन मिल गया।

मेवों के व्यापक पलायन के मद्देनजर उस समय गांधीजी ने दखल किया और घासेडा में आकर मेवों से पाकिस्तान नहीं जाने की अपील की। उनकी अपील का असर हुआ और मेवों का पलायन रुक गया। यहीं नहीं, सैकड़ों मेव परिवार पाकिस्तान से वापस यहां आ गये। लेकिन विस्थापित मेवों के पुनर्वास की व्यवस्थाएं समुचित नहीं थीं। इस समय तक भरतपुर और अलवर की देशी रियासतों का प्रभाव बरकरार था और ये मेव समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त थे। बाद में अलवर और भरतपुर को ’मत्स्य संघ’ में शामिल कर दिया गया जो मार्च 1949 में राजस्थान के गठन तक कायम रहा। इस दौरान मेवों को उनके आवास और भूमि को वापस दिलवाने और पुनर्वास की कार्यवाहियों को महत्व नहीं दिया गया। रियासती निजाम का पूरा जोर शरणार्थियों को बसाने पर रहा। कई जगह उन्हें मेवों के घरों व जमीनों के कब्जे दे दिये गये। समाज सुधारक रामेश्वरी नेहरु तथा सप्तबाई ने ऐसे मेवों को उनकी अपनी जमीन-जायदाद वापस बहाल कराने के लिए 1958 तक आंदोलन चलाया। लेकिन अगले दशकों तक भी मेव अपनी जमीनें पाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते रहे और ऐसे अनेक मामले अभी भी अलवर तथा भरतपुर की तहसीलों में लंबित हैं।

चतुर्थ अध्याय के लिए जुड़े रहें….

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