महात्मा गांधी को पूजने से ज़्यादा अपनाने की ज़रूरत है

पूरी दुनिया के देश मानते है कि गांधी विचार आज अत्यधिक प्रासंगिक हैं, लेकिन उनके रास्ते पर दो कदम भी उठाने का कोई साहस हास नहीं कर रहा है। उनकी मूर्तियां दुनियां के अधिकांश देशों में लगी हैं, संग्रहालय भी बने हैं, शिक्षा में पाठ्यक्रम भी हैं, उनके बारे में लिखने वाले और व्याख्यान देने वालों की भी कोई कमी नहीं है। फिर भी उनके विचारों को देश के कुछ गांधीजन के अलावा कोई जीवन से नहीं जोड़ता। सरकारें एवं उनमें बैठे व्यक्ति भी समाधि पर जाते हैं उनकी मूर्ति को मालायें भी पहनाते हैं, उनके संग्रहालय भी बनवा देते हैं, लेकिन उनके एकादश व्रत से, उनके रचनात्मक कामों से, और उनके द्वारा बताये सात पापों से कोई सरोकार नहीं रखते हैं। जबकि गांधीजी ने एकादश व्रतों को अपने जीवन में जीया, उन्नीस रचनात्मक कार्यक्रमों पर काम किया और सात पापों से मुक्त अपने जीवन को रखा। वे जो कहते थे वही वे करते भी थे और जो करते थे वही वे कहते थे। आज गांधी विचार का रास्ता अत्यधिक प्रासंगिक हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि यह रास्ता अत्यधिक उपेक्षित हैं। जबकि आज जो गांधी पर बहुत अच्छा लिखते हैं, बोलते हैं, वे उन बातों को अपने जीवन से कोई वास्ता नहीं रखते हैं। चन्द लोगों की कथनी और करनी में साम्य है। यहीं से गिरावट शुरू हुई है। आज जिस तरह का माहौल बनाया गया है उसमें पद, पैसा और प्रतिष्ठा की होड़ मची है। इनको पाने में कितनी भी हिंसा, षड्यंत्र, चापलूसी, भ्रष्टाचार या अन्य हथकंडे क्यों ना अपनाने पडे़ं, वे सब अपनाये जाते हैं। सत्ता के भागीदार अधिकांश ऐसे लोग ही नजर आयेंगे।

आज की नीतियां कहें या अनीतियां उनके चलते ही आमजन की समस्याओं के पहाड़ खड़े हो गये हैं। प्रकृति का असंतुलन, बेकारी, भ्रष्टाचार, शोषण, सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी, अपराधों का व्यवसायीकरण, धर्म के नाम पर नफरत और जाति की राजनीति ने व्यापक पैर पसार दिये है।
गांधीजी ने लोकतंत्र की व्यवस्था करते हुए कहा कि लोक /जनता/ के अधिन तंत्र होगा। सत्ता लोगों के हाथ में होगी। उसकी प्रकिया का सुझाव भी दिया। इस प्रकिया में मतदाताओं के संगठन गांव, ब्लाक और जिले तक होंगे, वे ही अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे और प्रतिनिधि के नकारा साबित होने पर जनता के द्वारा उसे वापस भी बुलाया जा सकेगा। मतदाताओं का संगठन ही स्थानीय व्यवस्था के संचालन में रहेंगे। केन्द्र अर्थात् राजधानियों के पास सीमित अधिकार होंगे। प्रतिनिधि उसे बनाया जायेगा, जो सेवक होगा।

आजादी के गत 76 वर्षों में इस तरह की व्यवस्था को विकसित करने का सोचा तक नहीं गया। बीच के दौर में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जरूर देश की जनता को इस प्रक्रिया का स्मरण कराया। सत्ता व्यवस्था जनता के हाथ में देने की बात तो दूर, बल्कि जनता को धर्म, जाति और गौत्र तक में बांट कर राज करने की प्रक्रिया तेज की गई है। जातीय नेताओं को भी अपना महत्व दर्शाने का अच्छा अवसर मिल जाता है। धर्म के नाम पर संकीर्ण साम्प्रदायिकता और नफरत की राजनीति करने वालों को भी ऐसी व्यवस्था अच्छी रास आने लगी है। इसके सहारे से मूल समस्याओं से जनता का ध्यान भी आसानी से हटाया जाता रहा है। जातीय और साम्प्रदायिक राजनीति ने लोकतंत्र के स्वरूप को और अधिक विकृत कर दिया है। इसलिये गांधीजी की अवधारणा को लोकतंत्र की ओर मोड़ने से ही जन-जन की सत्ता विकसित होगी और तभी सच्ची लोकशाही से समस्याओं का समाधान होगा।

गांधीजी ने ऐसी अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी जो हर व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाये। वह व्यवस्था स्वदेशी, स्वावलम्बन एवं रोजगार से जुड़ी हुई और आर्थिक समानता की ओर ले जाने वाली होगी। कह सकते हैं यह विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था होगी। इसमें खादी, ग्रामोद्योग, कुटीर उद्योग मुख्यतः विकसित होंगे। जिससे बेकारीे से निजात मिलेगी, प्रदूषणमुक्त और शहरीकरण से मुक्त व्यवस्था विकसित होगी, जो आज की बड़ी आवश्यकता है। इस व्यवस्था को आगे बढाने के लिये आजादी आन्दोलन की ड्रेस खदी थी। सभी कार्यकर्ता और नेता खादी के कपड़े ही पहनते थे। आजादी के बाद भी कांग्रेस में खादी वस्त्र अनिवार्य रखा गया, इसी प्रकार सर्वोदय कार्यकर्ताओं के लिये भी खादी अनिवार्य है। लेकिन गत दिनों कांग्रेस ने खादी और नशामुक्ति की शर्त को हटाकर अपने इतिहास पर धब्बा लगा लिया। लेकिन आजादी मिलने के प्रारम्भ से ही बड़े उद्योग-धन्धों पर जोर दिया, जिससे छोटे एवं ग्रामीण धन्धें बन्द हो गये और बेकारी बढाने में सहयोग मिला। केन्द्रित उद्योगों से आर्थिक गैरबराबरी को भी बड़ा सहयोग मिला। आज तो हालत यह बन गई है कि हमारी केन्द्र सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों को निजी धन्धें वालों को सौंपती जा रही है, जिससे लग रहा है जैसे ईस्टइन्डिया कम्पनी का युग नजदीक है। किसानों ने तो 13 माह सत्याग्रह चलाकर एवं 715 किसानों की शहादत देकर अपनी जमीन एवं जमीर बचा ली है। इस आर्थिक केन्द्रीकरण की नीति से कुछ घरानों ने ऐसी स्थिति बनाली है कि वे सरकार को अपने इशारों पर चला रहे हैं, तो दूसरी ओर बेकारी और गरीबी बेताशा बढ़ गई हैं। इन समस्याओं से तभी मुक्ति मिलेगी जब विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था कुटीर एवं ग्रामोद्योग परक व्यवस्था विकसित होगी। साथ ही अंतिम व्यक्ति अर्थात गरीब व्यक्ति को केन्द्र में रखकर योजनायें बनाई जायेंगी।

इसी प्रकार गांधीजी ने नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को विकसित करने वाली, स्वावलम्बन एवं बेकारी से निजात दिलाने वाली बुनियादी तालीम पर जोर दिया, लेकिन हमने वही अंग्रेजी कालीन शिक्षा को जारी रखा, जिससे नैतिक मूल्यों में तो गिरावट आयी है, बेकारी भी सुरसा की भांति मुंह खोले हुए है। गांधीजी की बुनियादी तालीम बच्चों को प्रारम्भ से ही मूल्यगत एवं स्वावलम्बन की ओर ले जाने वाली योजना थी। इस तालीम को आजादी के बाद से ही लागू कर दिया जाता तो युवा वर्ग को भटकना नहीं पड़ता।

गांधीजी की सामाजिक अवधारणा में किसी भी प्रकार का मानवीय भेद सामाजिक कलंक माना गया। मनुष्य-मनुष्य में भेद के खिलाफ लड़ाई उन्होंने 1893 में दक्षिण अफ्रिका से ही शुरू कर दी थी। भारत में लौटने के बाद भी सबसे पहले उन्होंने दलित बस्ती कोचरब, अहमदाबाद में आश्रम बनाया, दिल्ली की हरिजन बस्ती में भी उनका निवास रहता था। जबकि उस काल में ऊॅच-नीच के भेदभाव की स्थिति पराकाष्ठा पर थी। फिर भी उन्होंने आजादी के आन्दोलन में भी सामाजिक गैरबराबरी को मिटाना और उस वर्ग को आन्दोलन की मुख्य भूमिका में लाना, यह सशक्त कार्य गांधीजी ने किया। जातिवाद को मिटाने के लिये उन्होंने यहां तक संकल्प लिया कि लड़का एवं लड़की में से एक सवर्ण और एक अवर्ण होगा उसी शादी को वे आशीर्वाद देंगे। उनके इस संकल्प को यहां तक भी उन्होंने निभाया, उनके सचिव महादेव देसाई के लड़के नारायण देसाई का विवाह स्वपसंद की सवर्ण लड़की से हुआ, लेकिन गांधीजी ने उस जोड़े को आशीर्वाद नहीं दिया। लेकिन अधूरे अध्ययन एवं अपनी संकीर्ण समझ के विद्धान उन्हें जातिवादी, वर्णवादी एवं जाने क्या-क्या उपाधी देते हैं। जबकि बापू ने जीवन भर भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यहां तक कि स्त्री-पुरूष की गैरबराबरी को उन्होंने गंभीरता से लिया और महिलाओं को भी आन्दोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया। वे ऐसा सदभावी समाज बनाना चाहते थे जिसमें अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं को मानते हुए एकता के सूत्र में बंधे रहें। उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन करने के बाद कहा कि सभी धर्मों का सार एक ही है अच्छा इंसान बनाना। आज धर्म के नाम पर नफरत फैलाकर हैवानियत का संदेश दिया जा रहा है जो सभी के लिये चिन्ता की बात है। सभी धर्मों के केन्द्र में सत्य है और गांधीजी ने सत्य को ही ईश्वर माना। इस प्रकार समग्र दृष्टि से देखें तो आज की व्यवस्था का विकल्प गांधी विचार का रास्ता ही है।

लेखक श्री सवाई सिंह, गाँधीवादी विचारक और राजस्थान समग्र सेवा संघ के अध्यक्ष हैं।

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