
किसान एक बार फिर से सड़कों पर हैं। 12 जून को किसानों ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में महापंचायत के बाद दिल्ली चंडीगढ़ हाइवे फिर से जाम कर दिया है। किसानों की मांग है कि किसान नेता गुरुनाम सिंह चढूनी सहित बाकि अन्य किसान नेताओं को तत्काल रिहा किया जाये और सूरजमुखी की फसल पर सरकार द्वारा निर्धारित MSP पर इसे ख़रीदा जाये। सरकार द्वारा इस बार सूरजमुखी की फसल पर 6400 प्रति क्विंटल तय की गयी लेकिन मंडी में 4000 रूपए प्रति क्विंटल के भाव पर खरीदी जा रही थी, इसी मांग को लेकर किसान गुरुनाम सिंह चढूनी के नेतृत्व में 6 जून को कुरुक्षेत्र के पास शाहबाद में प्रदर्शन कर रहे थे जिस पर पहले भारी लाठीचार्ज किया गया और गुरुनाम सिंह सहित अन्य किसान नेताओं को गिरफ्तार करके उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। आंदोलन के अगले चरण के रूप में 12 जून को महापंचायत बुलाई गयी थी और पंचायत के बाद किसान हाइवे पर पक्का मोर्चा लगाके बैठे हुए हैं (जब ये लेख लिखा जा रहा था तब तक तो बैठे ही हुए थे) किसान अपनी उसी मांग को दोहरा रहें हैं। पहली ये की किसान नेताओं को रिहा किया जाये और दूसरी सूरजमुखी की फसल को 6400 रूपए प्रति क्विंटल के हिसाब से खरीद की जाये।
जैसे ही किसानों ने हाइवे जाम किया तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपने काम में जोरों शोरों से लग गया है । किसानों को बदनाम करने के काम पर की जनता को परेशानी हो रही है और किसान राजनीति कर रहें हैं असली किसान खेतों में हैं वगहैरा वगहैरा। खैर इस मीडिया पर बात भी क्या की जाये, पिछले कुछ सालों में ये मीडिया समाज के किसी भी हिस्से के आंदोलन को बदनाम करने के चक्कर में खुद ही इतना बदनाम हो चूका है कि अब सबको लगभग पता ही है कि मीडिया की भूमिका क्या होने वाली है, इस लिए ये मीडिया अपना कर्तव्य निभा रहा है अपनी जनविरोधी भूमिका अदा करके और किसान अपना कर्तव्य निभा रहे हैं अपने अपनी जायज मांग के लिए लड़के।
अभी हल ही में देश ने एक मजबूत किसान आंदोलन देखा, जो एक मायने में सफल भी रहा । किसानों ने एक साल सड़कों पर बैठके एक ऐसी सरकार को झुकाया जो अपने हट और जिद्दीपन के लिए मशहूर है। इसका मतलब ये नहीं हैं कि इस अंदोलन में कोई अंतर्विरोध नहीं थे। किसी भी आंदोलन में कोई अंतर्विरोध न हो ऐसा कभी संभव नहीं होता। लेकिंन आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण बात ये जो रही कि अपने अंतर्विरोधों के चलते भी ये आंदोलन नहीं बिखरा। ये एक ऐसा आंदोलन बना जिसने जो किसान कुछ सालों के अंतर्गत राजनितिक रूप से हाशिये पर चला गया था उसे राजनितिक रूप से एक बार फिर से काफी हद तक जिन्दा कर दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस अंदोलन की रही वो ये थी कि आंदोलन ने किसानों को सत्ता से आंख में आंख डालके अपनी बात को कहना सिखाया, लड़ना सिखाया. संगठित होना सिखाया और इस कारण से ये आंदोलन किसान आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ । लेकिन क्या सिर्फ इस आंदोलन से ही किसानों की स्तिथि में कोई सकारत्मक बदलाव आया या आ सकता है । नहीं ! 3 कृषि कानूनों के वापसी के साथ किसानों की एक मुख्य मांग MSP पर कानून बनाने की भी थी। लेकिन सरकार ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस लिए जब दिल्ली के बॉर्डरों से मोर्चे उठाये जा रहे थे तब किसान नेता लगातार ये बात कह रहे थे कि आंदोलन समाप्त नहीं हुआ है बल्कि स्थगित किया है। अभी MSP पर कानून और कर्जा मुक्ति बाकि है और इन दोनों मुद्दों पर 2024 से पहले ऐसा ही एक बड़ा आंदोलन किया जायेगा.

किसानों के विभिन्न संगठन और खासकर के पंजाब, हरियाण, राजस्थान के किसान काफी लंबे समय से MSP पर खरीद के कानून की मांग करते रहें हैं। वर्तमान में जो MSP मिलती है और MSP के निर्धारण का जो तरीका है, किसान उस पर भी सवाल उठा ते रहें हैं क्योंकि वर्तमान में मिलने वाली MSP में किसानों के श्रम, उनकी लागत और उनके अन्य खर्चों को उसमे शामिल नहीं किया जाता है। इस लिए किसानों की ये भी मांग रही है कि जो MSP दी जाये वो स्वामीनाथन आयोग की सिफारशों के तहत दी जाये जिसमे किसानों की लागत के साथ तमाम खर्चों को शामिल किया जा सके। प्रधान मंत्री मोदी खुद जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब वह इस मांग की वकालत कर चुके हैं। देश में खेती किसानी की क्या हालत है और किसान किस कदर कर्जे में डूबा हुआ है उसे एक बार पंजाब के उदहारण से समझते हैं . यहाँ आंकड़े पिछले कुछ सालों के हैं जो अलग अलग अध्यनों, सर्वों से लिए गए हैं। पंजाब का उदहारण इस लिए क्योंकि अगर देश में कही उत्तम खेती हैं तो वह पंजाब उसके बाद हरियाणा की मानी जाती है, पंजाब का किसान देश के अन्य इलाकों से सबसे ज्यादा समृद्ध माना जाता है जब सबसे समृद्ध माने जाने वाले किसान की ही ये हालत है तो आप बाकि किसानों की स्थिति का अंदाजा आराम से लगा सकते हैं।
पंजाब प्रति किसान सबसे ज्यादा कर्ज वाले सूबे में शामिल है। यहाँ प्रति किसान परिवार औसत बकाया कर्ज राष्ट्रीय औसत से अधिक है। देश के किसानों पर औसतन 47 – 47 हजार रूपए का कर्ज है, जबकि पंजाब में यह कर्ज 119500 रूपए है। पंजाब के किसान की सालना औसतन आय देश में सबसे अधिक मानी जाती है। यहाँ हर किसान सालाना 2,30,905 रुपये कमाता है। लेकिन इसके पीछे का सच यह भी है कि 80 फीसदी से अधिक किसान कर्जदार है।
पंजाब में ज्यादातर किसानों कि जमीन बैंकों के पास गिरवी है। पहले एक एकड़ पर 10 हजार लोन मिलता था अब 3 लाख मिल रहा है किसानो के लिए लोन लेना जरुरी हो जाता है उसके बिना उनका सर्वाइवल ( survival ) मुश्किल है। 2018 पंजाब में ही 12 ,625 किसानों को लीगल नोटिस दिया गया था । उस नोटिस में कहा गया था कि अगर वो अपना कर्जा वापिस नहीं करते हैं तो उनकी जमीन को जप्त किया जा सकता है। इनका कर्जा था लगभग 230 करोड़ रूपए। लेकिन वही उस समय सिर्फ 2 कॉर्पोरटे का 13 हजार करोड़ रूपए माफ़ किया गया। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में 21 सरकारी बैंको ने कॉर्पोरेट के 3 लाख 16 हज़ार करोड़ रुपये के लोन माफ कर दिए हैं। अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 के बीच तीन लाख करोड़ रुपये के लोन माफ किए गए।
इंडियन एक्सप्रेस के खबर के अनुसार जितना पैसा भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा का जो कुल बजट है ये रकम उससे दो गुना थी यानि की जितना पैसा यहाँ के स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च किया जाता है उससे दोगुना लोन बैंकों ने माफ किया। 2021 में स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट नाम से एक रिपोर्ट जारी की गयी, इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में देश भर में 5,957 किसानों और 4,324 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। यानि की केवल 2019 में ही कृषि में लगे लगभग 10 हजार लोगों ने आत्महत्या कर ली। 2018 में ये आंकड़े क्रमशः 5,763 और 4,586 थे।
ये रिपोर्ट Down To Earth में 25 फरवरी 2021 को प्रकाशित की की गयी थी आप चाहे तो वहां से इसे पढ़ सकते हैं। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि 2019 में 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए। 2018 में 20 राज्यों में किसानों के आत्महत्या के मामले दर्ज किए, जबकि इसी साल 21 राज्यों में खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। यह आंकड़ा 2019 में बढ़कर 24 हो गया। NCRB 2020 के आंकड़ों के अनुसार 2020 में किसानों की आत्महत्या में 18 % बढ़ोतरी हुई है। महाराष्ट्र में 2019 से 2020 के अंतराल में 4006 किसानों ने आत्महत्या की, कर्नाटक में 2016,आंध्र प्रदेश में 889, मध्य प्रदेश में 735 और छत्तीसगढ़ 537।
आपको पिछले साल की एक खबर बताते हैं 2022 अप्रेल में खबर छपी थी कि गुजरात के एक किसान को बैंक ने इस लिए NOC नहीं दी क्योंकि उसके महज 31 पैसे बाकि थे। मामला गुजरात के SBI बैंक का बताया जा रहा है। खबर के मुताबिक राकेश वर्मा और मनोज वर्मा ने खोराज गांव में संभाजी पाशाभाई और उनके परिवार से जमीन का एक टुकड़ा खरीदा था। यह जमीन अहमदाबाद शहर के बाहरी इलाके में है। पाशाभाई के परिवार ने एसबीआई से एक फसल कर्ज लिया था। इस कर्ज को अदा करने से पहले पाशाभाई के परिवार ने इस जमीन को बेच दिया था। बकाया रकम की वजह से बैंक ने जमीन पर चार्ज लगा दिया और इस कारण से जमीन के नए मालिकों के नाम राजस्व रिकॉर्ड में नहीं दर्ज हो सके। जमीन खरीदने वाले किसान राकेश वर्मा और मनोज वर्मा ने सर्टिफिकेट पाने के लिए बकाया पैसा भरने का प्रस्ताव रखा। जब इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई तो जमीन के खरीदारों ने 2020 में हाई कोर्ट का रुख किया। कोर्ट में याचिका लंबित रही और इस दौरान कर्ज का भुगतान कर दिया गया। लेकिन इसके बावजूद बैंक ने नो ड्यूज सर्टिफिकेट नहीं दिया और इस वजह से जमीन खरीदारों को ट्रांसफर नहीं हो सकी। बुधवार को कोर्ट ने कहा कि जब एक बार लोन की अदायगी हो जाए तो वह बैंक को सर्टिफिकेट जारी करने के लिए निर्देश देगा। इस पर बैंक ने कोर्ट को सूचना दी कि अभी 31 पैसा बकाया है।
जहाँ एक तरफ विजय माल्या बैंक के 9 हजार करोड़ का घोटाला करके आराम से लंदन की सड़कों पर टहलता पाया जाता हो ,वही दूसरी तरफ एक किसान को NOC इस लिए नहीं दी जाती है क्यों कि उसके महज 31 पैसे बकाया है। 2018 में ही नीरव मोदी भी पंजाब नेशनल बैंक का 11 हजार करोड़ का घोटाला करके लंदन भाग गया (हालांकि नीरव मोदी वर्तमान में लन्दन की जेल में बंद है लेकिन अभी तक भारत नहीं लाया जा सका)। ऐसे ही एक नाम मेहुल चौकसी भी है, इनका नाम भी PNB बैंक घोटाले के साथ में जुड़ा हुआ है। इन पर 5992 करोड़ के फर्जीवाड़े का आरोप है। 2020 में जब एक RTI लगाई गयी तब पता लगा की इन का कर्जा माफ़ कर दिया गया। तो ये स्थिति है। जब भी किसान सरकार से MSP के कानून की मांग करते हैं तब सरकार का एक ही तर्क होता है कि सरकार पर अतिरिक्त भार पड़ेगा। हमारी सत्ता के पास कॉर्पोरेट के करोड़ों के कर्जों को माफ़ करने के लिए तो पैसा है लेकिन किसान को उसकी फसल का उचित दाम देने के लिए नहीं।
The author of this article is Manas Bhushan who is a prominent Journalist on Social issues.
