25 जून 1975 : आपातकाल और जेपी आंदोलन

आपातकाल 1975
फासीवादी दमन का वर्तमान दौर में नागरिक अधिकार आंदोलन

लगभग पांच दशक होने जा रहे हैं, 25 जून1975 को इंदिरा निरंकुशता द्वारा देश पर आपातकाल थोपा गया था। नागरिक आजादी, संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों को स्थगित करके, विपक्ष (मुख्यतया गैर वामपंथी) के नेताओं को जेलों में ठूंसा गया‌ था। प्रेस की आजादी प्रतिबंधित कर दी गई थी, आंतरिक सुरक्षा कानून (MISA) राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (DIR) के साथ नौकरशाही को जनता का दमन करने के लिए खुला छोड़ दिया गया था। इसका विभत्स उदाहरण संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम था, जिसके अंतर्गत जबरिया नसबंदी और सौंदर्यीकरण के नाम पर बुलडोजर राज था, जिसके अंतर्गत झुग्गियों को उजाड़ा गया, दिल्ली में तुर्कमान गेट के पास की झुग्गियों को बुलडोजर से ढहा दिया गया। बेघर लोगों को दिल्ली की सीमा से बाहर धकेल दिया गया।

अंतराष्ट्रीय स्तर पर सोवियत संघ और देश के वामपंथी खेमे से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी “आपातकाल के नाम पर इस दमन में” में कांग्रेस के साथ थी। जेपी के नेतृत्व में “संपूर्ण क्रांति आंदोलन” का फायदा जनता से ठुकराए विपक्षी दलों ने उठाया, सिंडीकेट-जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी व सांप्रदायिक दलों के साथ जुड़ कर लोकदल और वामपंथ में समाजवादियों ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाकर 1977 में सरकार और जनता पार्टी बनाई। इस प्रकार यथास्थितिवाद को अजमाया गया। व्यवस्था परिवर्तन का संघर्ष सरकार परिवर्तन में सिमट गया। (कथित “जनता सरकार” ने भी जनता पर दमन का कहर कहर ढाया, इसका एक उदाहरण कानपुर में स्वदेशी काटन मिल के मजदूरों पर फायरिंग है। यहां मजदूर अपनी मजदूरी के भुगतान की मांग कर रहे थे, उनकी तीन पन्द्रहियों की मजदूरी मालिकों ने नहीं दी थी।) जल्द ही विपक्षी दलों की यह गैर सैद्धांतिक और अवसरवादी एकता टूट गई। 1980 में कांग्रेस फिर सत्ता पर लौट आई थी।

भारत में जनता और सत्ता के बीच संघर्ष निरंतर जारी है। शासक वर्ग, उनके विभिन्न राजनीतिक दलों- सत्ताधारी और विपक्षी, के बीच न थमने वाले अंतर्विरोधों की जड़ में भी यह संघर्ष है। जनता व्यवस्था परिवर्तन चाहती है, संसदीय दल व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं। विपक्ष जन संघर्षों की आंच में अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं जबकि सत्ता पर काबिज जातिवाद, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण आदि हथकंडों का प्रयोग करके जनता में फूट डालकर, उनके संघर्षों को गुमराह और दमन करके सत्ता पर अपनी पकड़ बरकरार रखने का जीतोड़ प्रयास करते हैं। तमाम दमनकारी कानून इसके उदाहरण हैं।

मध्य उत्तर प्रदेश संघर्ष की परम्परा

मध्य उत्तर प्रदेश व बुन्देल खंड का मिजाज वामपंथी रहा है। आजादी की पहली जंग 1857 के बाद भी यहां क्रांतिकारी गेंदेलाल दीक्षित, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, मुकुंदीलाल, चन्द्र शेखर ‘आजाद’-भगतसिंह के संगठन हिन्दुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन असोसिएशन (HRA फिर HSRA), सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में गठित फारवर्ड ब्लाॅक और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सक्रियता रही। कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी-हसरत मोहानी, हरिहर नाथ शास्त्री, राजाराम शास्त्री, दादा देवीदत्त अग्निहोत्री, संत सिंह ‘युसुफ’, आनन्द माधव से लेकर कामरेड रामआसरे के नेतृत्व में मजदूर आंदोलन; उन्नाव इटावा-औरैया में कमान्डर अर्जुन सिंह भदौरिया, देवीदयाल दुबे, महावीर भाई, किशनलाल जैन, बलराम दुबे, शम्भूनाथ ‘आजाद’ शहीद कामरेड महेश इस परम्परा के झंडबरदार थे। उन्नाव-हरदोई में विशम्भर दयालु त्रिपाठी, शिवकुमार मिश्र, संजीवन लाल, भीखा लाल, सुमनजी, टेकचन्द्र यादव, राम चरन काछी से लेकर किसान आंदोलन के क्रांतिकारी नेता कामरेड लखपत, शिवनाथ त्रिवेदी, शहीद साथी देवी गुलाम, राम चरन (जोशी’ गुप्त नाम’) कामरेड तुलसी, संतराम, जहूर अहमद, सतपाल, रामराज, रामचन्द्र सिंह, शिव कुमार सिंह, कमला नागर, मन्साराम सहित अनेक साथियों ने सामंतवाद विरोधी उत्पीड़ित किसानों को संगठित करके उनके नागरिक अधिकारों के लिए जारी जनसंघर्षों में खास भूमिका अदा की है।

25 जून 1975 को देश पर थोपा गया आपातकाल और मौजूदा दक्षिणपंथी फासीवादी उभार आकस्मिक नहीं, सात दशक से जारी निरंतर जनआंदोलनों और सत्ता के बढ़ते दमन का क्रमिक विकास हैं। माउंटबेटन योजना के आधार पर बरतानिया संसद द्वारा पारित “भारत स्वतंत्रता अधिनियम, 1947” के माध्यम से साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन करके जो “आजादी” हमें सौंपी गई “हिन्दू राष्ट्र” के बीज उसमें ही निहित थे। भारत-पाकिस्तान विद्वेष के जरिए राष्ट्रवाद के नाम पर साम्प्रदायिक अंध राष्ट्रवाद और “छद्म धर्म निरपेक्षता” (भाजपा/आरएसएस की भाषा में तुष्टीकरण) के आवरण में कांग्रेस राज दरअसल सवर्ण आधिपत्य में हिंदू राज ही रहा है। कहने के लिए तो जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान भी “धर्म निरपेक्ष” था, बाद में वहां कि सरकारों ने उसे इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया। भारत में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार हो या आरएसएस-भाजपा के स्पष्ट बहुमत वाली नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग की वर्तमान सरकार… घोषित रूप से तो ये भी सेक्युलर (धर्म निरपेक्ष या पंथ निरपेक्ष) हैं। भाजपा-कांग्रेस के बीच “उग्र हिन्दुत्व बनाम नरम हिन्दुत्व” की मौजूद जंग, मूलतया सवर्ण नेतृत्व में अर्द्ध सामंती ब्राह्मणवादी व्यवस्था की निरन्तरता के लिए शासक वर्ग की दो कार्यनीतियां हैं। डाॅक्टर राम मनोहर लोहिया ने जिसे “अगड़ा बनाम पिछड़ा” का संघर्ष बताया था, डेढ़ सदी पहले ज्योतिबा फुले ने इसे ब्राह्मणी व्यवस्था के खिलाफ शूद्र-अतिशुद्र बहुजन के संघर्ष के रूप में व्याख्यायित किया था। “किसान का कोड़ा” और “गुलामगिरी” उनकी कालजयी रचनाएं नागरिक अधिकार के संघर्ष के लिए पथ प्रदर्शक हैं।

प्रतिक्रियावाद का मुकाबला प्रगतिशीलता से ही संभव है, यथास्थितिवाद बीच का समझौतापरस्त रास्ता है। इतिहास गवाह है योरोप में फासीवाद के विरोध का आलाप भरने के बावजूद, सामाजिक जनवाद (सोशल डेमोक्रेसी) ने फासीवाद को मजबूत ही किया था। “संविधान बचाओ- लोकतन्त्र बचाओ” की रक्षात्मक व यथास्थितिवादी रणनीति की जगह फासीवाद से मुकाबला करने के लिए मजदूर-किसान, छात्र-नौजवान को मुख्य मानकर सशक्त नागरिक अधिकार आंदोलन संगठित करना होगा… लोकतांत्रिक जनसंघर्ष की दिशा अपनानी होगी। आज जब, संसदीय विपक्ष भौंथरा है… जनसंघर्षों की नुमाइन्दगी नहीं कर रहा है, गोदी मीडिया का वर्चस्व है, बिना व्यापक जन आधार के नागरिक अधिकार आंदोलन को केवल मध्यवर्ग के वकील, पत्रकार, बुद्धिजीवियों तक सीमित रख करके बलवती नहीं बनाया जा सकता है।

आपातकाल के पहले 10 साल

भारतीय राजनीति में 1967 से 1977 का दौर, झंझावती जनसंघर्षों और कांग्रेस के एकाधिकारी शासन के पतन का दौर था। 1947 से 1967 तक देश में केन्द्र व राज्यों के शासन पर कांग्रेस का एकछत्र अधिकार रहा। ब्रिटिश राज के उत्तराधिकार के रूप में इसे “कांग्रेस राज” कहा गया है। जय प्रकाश नारायण तो 1952 के चुनावों में हार के बाद राजनीति से विमुख होते गए। 1954में उन्होंने विनोबा भावे के नेतृत्व में, गांघी विचार के अनुसार रचनात्मक कार्यक्रम पर आधरित सर्वोदय का दामन थाम लिया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तेलंगाना किसान आंदोलन में आत्मसमर्पण के बाद, संसदीय रास्ते मतलब वर्ग संघर्ष के जरिए सत्ता दखल की जगह, आर्थिक व आंशिक संघर्षों के माध्यम से विधान सभा व लोक सभा में सीट बढ़ाने की नीति अपना ली… उसकी धार कुन्द हो चली थी। इस दौर में डा. राम मनोहर लोहिया ने “सड़कें खामोश हो जाएंगी तो संसद आवारा हो जाएगी” तथा “जिन्दा कौम पांच साल इंतजार नहीं करती” जैसी जुझारू जन संघर्ष की दिशा पेश की।

सत्तर के दशक के उथल-पुथल के दौर के मूल में था कृषि संकट। जमींदारी उन्मूलन के लिए कानून तो बने लेकिन “जोतने वाले को जमीन” के आधार पर कृषि संबंधों का रूपान्तरण नहीं हुआ, अर्द्ध सामंती संबंध बरकरार रहे। जाति उतफीड़न व वर्ण व्यवस्था की मौजूदगी अर्ध सामंती संबंधों की निरंतरता के उदाहरण हैं। खाद्य संकट, महंगाई व बेरोजगारी से बेहाल जनता संघर्षों के जरिए अपने आक्रोष को जाहिर कर रही थी। लोकसभा व विधान सभा के एक साथ चुनाव अंतिम बार1967 में हुए थे। नौ राज्यों में संयुक्त विधायक दल के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ, इनमें प. बागाल और केरल भी शामिल थे। इसके पहले तीन चुनावों में कांग्रेस को लोकसभा में करीब तीन चौथाई सीटें मिलती रहीं लेकिन इस बार वह 283 सीटें.. यानी बहुमत से मात्र 22 सीटें ज्यादा मिल सकी, प्राप्त मत प्रतिशत में भी करीब पांच फीसदी की गिरावट आई। कांग्रेस को 1952 में 45 फीसदी, 1957 में 47.78 फीसदी और 1962 में 44.72 फीसदी वोट मिले थे पर 1967 मे उसका वोट घटकर 40.78 फीसदी रह गया था।

कांग्रेस के पतन व दक्षिणपंथ के उभार की शुरुआत

संसदीय राजनीति में 1967 “कांग्रेस राज” के पतन की शुरुआत थी तो इसे दक्षिणपंथ के उभार की शुरुआत भी कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में 425 सदस्यीय विधान सभा में दक्षिणपंथियों को 110 (भाजपा को 98 तथा स्वतंत्र पार्टी को 12) स्थान मिले थे, जबकि वामपंथी खेमे में समाजवादियों को 55 (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को 44 और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 11) कम्युनिस्ट 14 (भाकपा-11 माकपा-1) इसके अतिरिक्त दलित आधार वाली रिपब्लिकन पार्टी (RPI) को 10 स्थान मिले थे। लोकसभा में भी दक्षिणपंथी दलों को 79 (स्वतंत्र पार्टी जिसे पूर्व राज घरानों का खुला समर्थन था- 44 तथा भारतीय जनसंघ-35) और वामपंथियों को 81स्थान मिले थे। परंतु कांग्रेस समर्थक कार्यनीति पर मतभेद के आधार कम्युनिस्ट और समाजवादी दोनों विभाजित थे। अभी तक दूसरे स्थान पर रही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जनसंघ के बाद चौथे स्थान (भाकपा-23 माकपा-19) और 39 समाजवादी सांसदों में से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी-13 और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी-26 सांसद विभक्त थे। यही वह दौर था जब डाॅ. लोहिया ने “गैर कांग्रेसवाद” के आधार पर “गैर कांग्रेसी-गैर कम्युनिस्ट” विकल्प की रणनीति सूत्रबद्ध की थी। कांग्रेस कभी 50 प्रतिशत वोट हासिल नहीं कर सकी।, ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था अपनाने के कारण चुनाव के लिए “फस्ट पास्ट पोस्ट” मतलब ‘सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति विजयी’ निर्वाचन पद्धति को अपनाया गया है। इसके विपरीत समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation System) में दल को प्राप्त मत के आधार पर सीट दी जाती हैं।

इन्दिरा गांधी ने 1967 के आघात के बाद जिस रणनीति को अपनाया वह दक्षिणपंथी उभार के खिलाफ वाम तैवर के साथ सुधारवाद की रणनिति थी। “गरीबी हटाओ” के नारे के साथ उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स (राजा-नवाबों को देश के खजाने से दिया जाने वाला भत्ता) समाप्त किए, 1971 में मध्याविधि चुनाव भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन किया। दूसरी ओर कांग्रेस विभाजन के बाद सिडीकेट गुट (संगठन कांग्रेस), जनसंघ, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, का महा गठबंधन (grant allince) बना। इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 352 स्थान पर जीती और महा गठबंधन को कुल 51 स्थान मिल सके। इसमें जनसंघ को 22 और मुरारजी देसाई के नेतृत्व में संगठन कांग्रेस 16 स्थान ही जीत सकी थी।

1974 में गुजरात-बिहार से प्रारम्भ देश में छात्र-युवा आंदोलन को जेपी ने “संपूर्ण क्रांति” का लक्ष्य दिया था परंतु इसकी इतिश्री विपक्ष के मत विभाजन को रोक करके कांग्रेस राज को उलटने की चुनावी रणनीति और सरकार परिवर्तन में हुई। जनता सरकार के नाम पर 1977 में गठित “गैर कांग्रेस-गैर कम्युनिस्ट सरकार” में तुरंत ही बिखराव शुरू हो गया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1980 में फिेर बागडोर संम्भाल ली थी।

जेपी आंदोलन

संघर्ष की दो दिशाएं

“गैर कांग्रेसवाद” और चुनाव के जरिए सरकार बदलने का जो रास्ता डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने पेश किया था, जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व मे वह 1977 में वह साकार हुआ। लोहिया जिस रास्ते पर देश को बढ़ा रहे थे उसमें नेतृत्व समाजवादियों का था, जेपी आंदोलन की परिणति दक्षिणपंथ के वर्चस्व के रूप में हुई।

व्यवस्था परिवर्तन की दूसरी दिशा, कृषि क्रांति की दिशा थी। इसे 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी के वाम धड़े ने पेश किया था। प. बंगाल के दार्जलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी में परती भूमि पर गरीब भूमिहीन किसानों का कब्जा, फसल दखल आदि के जरिए क्रांतिकारी भू सुधार आंदोलन की शुरुआत की। 25 मई, 1967 को पुलिस ने नक्सलबाड़ी के छोटे से टोले प्रसादज्योत में किसानों की एक रैली पर फायरिंग की, दो बच्चों समेत 11 लोगों की मौत हो गई, जिनमें महिलाएं भी थीं। किसानों के शांतिपूर्ण विरोध को कुचलने के लिए एक दिन पहले भी पुलिस गांव में घुसी थी॥ पुलिस के प्रतिरोध में उस दिन भी किसान डट गए थे। जिस तरह मैदानी इलाकों या शहरों में पुलिस की लाठियों के जवाब में आंदोलित जनता पथराव कर दिया करती है, जनजातिय बाहुल्य जंगली व पहाड़ी इलाकों में किसान तीर चलाकर दमनकारी पुलिस का प्रतिरोध करते रहे हैं। उस दिन किसानों की ओर से चलाए जा रहे तीरों में से एक तीर पुलिस अधिकारी को लग गया और उसकी मौत हो गई। गृह मंत्री ज्योति बसु ने पुलिस को छूट दे दी। अगले दिन, प्रसादज्योत में एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे जमा प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोलियां दागी। धनुष-बाणों से लैस किसान जुझारू प्रतिरोध में उठ खड़े हुए, जिसकी परिणति व्यापक सशस्त्र संघर्ष में हुई।

यह घटना आकस्मिक नजर आ सकती है परंतु इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में सोच, कार्यक्रम व क्रांति के रास्ते से संबंधित वैचारिक संघर्ष था, जो तेलंगाना के किसान आंदोलन (1946-51) से चल रहा था। इस संघर्ष के मध्य भारतीय कम्युनिसट पार्टी का पहला विभाजन 1964 में हुआ था। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी ने 1951 में ही तेलंगाना संघर्ष वापस लेकर… सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोड़ करके संसदीय रास्ते को अपना लिया था। इसके बावजूद, कांग्रेस के साथ चुनाव में समझौता करने या न करने की रणनीति पर मतभेद थे, खासकर बंगाल, केरल और आंध्र प्रदेश में, जहां कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच सीधी टक्कर थी। कम्युनिस्ट पार्टी का वह धड़ा, जिसे मार्क्सवादी या माकपा नाम से जाना जाता है, कांग्रेस से समझौता करने की डांगेवादी नीति से असहमत था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का एक तीसरा हिस्सा भी था जो तेलंगाना लाइन (आंध्र थीसिस) से सहमत था, संसदीय रास्ते से भारत में व्यवस्था परिवर्तन नहीं हो सकता यह उनका मानना था। 1967 के चुनाव के नतीजों ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में इस बहस को और मुखर कर दिया। नक्सलबाड़ी में दमन गैर संसदीय और सशस्त्र संघर्ष की दिशा को कुचलने की नीति थी। नक्सलवादी आंदोलन प्रभाव और व्यापकता में, तेलंगाना किसान आंदोलन के बाद देश में सबसे बड़ा आंदोलन था। इसका विस्तार जम्मू कश्मीर से केरल तक था। बंगाल, बिहार,उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र,दक्षिण भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल लगभग पूरे भारत में कम्युनिस्ट पार्टी में वामपंथी इस आंदोलन के समर्थन में सक्रिय हो गए। दार्जलिंग जिले का नक्सलबाड़ी गांव उस हिस्से में है जिसे “चिकन नेक” कहा जाता है। उत्तर पूरब की सात बहन कहे जाने वाले राज्य अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा को भारत से जोड़ने वाला रास्ता दार्जलिंग जिले से जाता है, जहां नक्सबाड़ी गांव है। समझा यह गया था कि प. बंगाल में क्रांतिकारी भूमि सुधार को केन्द्र की कमजोर सरकार सैन्य बल से कुचल नहीं सकेगी। अगर वह भूमि सुधार के क्रातिकारी कदम को कुचलने के लिए बंगाल की सरकार को अपदस्थ करके राष्ट्रपति शासन लागू करती है और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सहित अन्य दल भी क्रांतिकारी आंदोलन का रास्ता अपनाते है तो पूरा बंगाल और उसके साथ देश में विद्रोह उठ खड़ा होगा। नक्सलबाड़ी नामक एक गांव से प्रारम्भ कृषि क्रांति की चिंगारी, जंगल में दावानल की आग की तरह कृषि प्रधान भारत में फैल जाएगी। इस तरह सरकार बदलने की जगह व्यवस्था परिवर्तन देश का मुकद्दर बदल देगा। नए जनवादी भारत का निर्माण होगा।

देश के अन्य हिस्सों की तरह बंगाल की जनता खाद्य संकट, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी से जूझ रही थी। व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग लेकर जनता आंदोलित थी। बंगाल में कांग्रेस के नेतृत्व पर सिंडीकेट गुट हावी था। वहां इस गुट के नेता प्रफुल्ल सेन और अतुल्य घोष थे। इस गुट के खिलाफ बगावत करके अजाॅय मुखर्जी, प्रफुल्ल चन्द्र घोष के नेतृत्व में बांग्ला कांग्रेस नामक नए दल का गठण हुआ था। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी बांग्ला कांग्रेस के गठन में महत्वपूर्ण किरदार थे। देखा जाए तो बंगाल की कांग्रेस में हावी सिंडीकेट गुट के खिलाफ इन्दिरा गांधी गुट की भी बांग्ला कांग्रेस गठन में एक भूमिका थी। अंत में, बांग्ला कांग्रेस का इंदिरागांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में विलय हो गया, प्रणब मुखर्जी राज्य सभा के सदस्य व इंदिरा गांघी के खास बने।

कांग्रेस का विभाजन 1967 तक नहीं हुआ था। बंगाल विधानसभा के लिए 1967 में हुए चुनाव के दौरान कम्युनिस्टों सहित सभी वामपंथी दलों (समाजवादी पार्टियों सहित} ने बांग्ला कांग्रेस के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया था। नयी सरकार के मुख्यमंत्री अजाॅय मुखर्जी और उप मुख्यमंत्री ज्योति बुस थे। मार्क्सवादी पार्टी में बहस थी कि मजदूर वर्ग की पार्टी शोषणकारी वर्ग की राजसत्ता का अंग कैसे बन सकती है? मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अनुसार वर्ग विभाजित समाज में राजसत्ता दमन और उत्पीड़न का अौजार होती है। हड़ताल से काम नहीं चल रहा, तो बंगाल के मजदूरों ने घेराव के रूप में संघर्ष का नया रूप विकसित किया था। कम्युनिस्ट जब तक सत्ता में न थे इस आंदोलन के अगुआ थे। घेराव ने जनता के सभी स्तर के संघर्षो को नयी शक्ति दी थी। अब जब वामपंथी सत्ता में थे तो इन अंदोलनों का दमन करने का विषय सरकार के सामने था। सरकार की ओर से सर्कुलर जारी हुआ, पुलिस आंदोलित जनता का दमन नहीं करेगी। बंगाल के उच्च नायालय ने सरकार के इस आदेश को निरस्त कर दिया।

बांग्ला कांग्रेस से अतुल्य चन्द्र घोष अलग हो गए, उनके साथ एक दर्जन के लगभग विधायक थे। कांग्रेस ने राज्यपाल से मिलकर घोष का समर्थन किया। राज्यपाल द्वारा दिए समय में विधान सभा में बहुमत सिद्ध करने पर अजाॅय मुकर्जी के रवैए को टालमटोल कहकर राज्यपाल ने अतुल्य चन्द्र घोष को मुख्यमंत्री बना दिया। इस प्रकार “प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन” नाम से अतुल्य चन्द्र घोष के नेतृत्व में यह सरकार 2 नवंबर 1967 से 20 फरवरी 1968 तक ही चल सकी। 1968 से फ़रवरी 1969 तक एक साल राष्ट्रपति शासन रहा। विधानसभा के चुनाव 1969 में हुए। अजाॅय मुखर्जी के नेतृत्व में दूसरी बार भी संयुक्त मोर्चा सरकार बनी। ज्योतिबसु इसमें भी उप मुख्यमंत्री थे। यह सरकार भी बमुश्किल एक साल (फ़रवरी 1969 से मार्च 1970 तक) चली। 16 मार्च, 1970 को अजाॅय मुखर्जी ने इस्तीफा दे दिया। राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया। अप्रैल 1971 से जून 1971 तक कांग्रेस ने राज्य में सत्ता संभाली लेकिन यह सरकार भी क़ायम न रह सकी। जून 1971 से मार्च 1972 तक फिर राष्ट्रपति शासन रहा। अजाॅय मुखर्जी तीसरी बार 2 अप्रैल 1971 को कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने। दो माह बाद, 28 जून 1971 को उनकी यह सरकार भी गिर गई। अब फिर राष्ट्रपति शासन 20 मार्च 1972 तक रहा। 1972 में कांग्रेस ने स्पषट बहुमत से सरकार बनाई। इस सरकार के पांच साल सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में बंगाल में भारी दमन का दौर रहा। वाम मोर्चे का आरोप था कि 1972 के चुनाव में कांग्रेस द्वारा भारी धांधली की गई थी। चुनाव में माकपा को 28 प्रतिशत वोट मिले लेकिन स्थान कुल 14 मिले थे। वाममोर्चे को 36 प्रतशत वोट तथा 20 सीट मिली थी। ज्योतिबसु भी चुनाव हार गए थे। यह चुनाव पश्चिम पाकिस्तान के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) युद्ध में के बाद हुआ था। इसके अतिरिक्त संयुक्त मोर्चे से अजाॅय मुखर्जी की पार्टी बांग्ला कांग्रेस अलग होकर कांग्रेस में सम्मिलित हो गई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) भी संयुक्त मोर्चा छोड़कर कांग्रेस के मोर्चे में सम्मिलित हो गई थी। 1967 से 1971 तक तीन चुनावों में संयुक्त मोर्चे की लगातार अन्तर-कलह और टूट ने निराशा का महौल उत्पन्न कर दिया था। इन्दिरा गांधी काफी प्रतिष्ठित हो चुकी थी, चार बार राष्ट्रपति शासन और अस्थिरता के दौर से जनता ऊब चुकी थी। नक्सलवादियों का दमन के नाम पर संयुक्त मोर्चे की सरकार ने जो कुछ किया उससे वामपंथियों की परिवर्तनकारी छवि पर सवाल थे। वह नागरिक अधिकार आंदोलन की भी आलोचनाओं का निशाना बन गई। पांच साल सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार के दौरान माकपा हाशिए पर रही, यह समझ कि बुर्जुआ राज में सरकार बनाकर उसे वर्ग संघर्ष को तेज करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, वर्ग संघर्ष पर संसदीय संघर्ष को प्रमुखता देने में बदलती गई।

गठबंधन की राजनीति में किसी तरह सत्ता हासिल करना प्रमुख हो जाता है। इस नीति से अवसरवाद के लिए दरवाजे खुल गए। भाकपा तो कांग्रेस के गठजोड़ का अंग बन ही चुकी थी, माकपा ने भी 1977 में लोकसभा चुनाव मोरारजी के नेतृत्व में लड़ा। 1969 में राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा के नेतृत्व वाले कांग्रेस गुट ने मोरारजी देसाई वाले सिंडीकेट के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्ढी के खिलाफ वी वी गिरी का समर्थन किया था ओर भाकपा और माकपा दोनों ने इंदिरा गांधी का साथ दिया था। मोरारजी के उसी गुट के नेतृत्व में 1971 में बने महागठबनंधन के साथ 1977 में गलबाहियां करने में माकपा को तनिक संकोच नहीं हुआ। उसने लोकसभा का चुनाव में पश्चिम बंगाल में जनता पार्टी के साथ सीटों का तालमेल करके लड़ा था। वहां जनता पार्टी के 15 प्रत्याशी जीते थे और माकपा के 17 प्रत्याशी संसद पहुंचे थे। जनता पार्टी 1969 में गठित चार पार्टियों के महा गठबंभन का अधिक व्यापक और नया संस्करण थी। केन्द्र में सरकार बनते ही जनता पार्टी ने पहला काम यह किया कि 9 राज्यों में, जहां कांग्रेस की सरकार थी, विधानसभाओं को अपदस्थ कर चुनाव कराए। इन राज्यों में प. बंगाल भी था।

माकपा ने जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके विधान सभा का भी चुनाव लड़ने का प्रयास किया, परन्तु सीटों बटवारे पर सहमति न बन सकी। माकपा ने जनता पार्टी को प्रस्ताव दिया था कि वाम मोर्चा 56 प्रतिशत स्थान और मुख्य मंत्री जनता पार्टी के प्रफुल्ल चन्द्र सेन बने इस पर सहमत हैं, परंतु जनता पार्टी का स्थानीय नेतृत्व 70 प्रतिशत स्थानों पर अपने प्रत्यशी उतारने की मांग कर रहा था। समझौता नहीं हो सका। चुनाव त्रिकोणीय हो गया। इसका लाभ वाम मोर्चे को मिला। वाम मोर्चे को अप्रत्याशित सफलता मिली। वाम मोर्चे से माकपा-178, फारवर्ड ब्लाक (AIFB)-25, क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी (RSP)-20, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी (RCP)-4, मार्क्सवादी फारवर्ड ब्लाक (MFB)-3, विप्लवी बांग्ला काग्रेस-2, और एक वाम समर्थित निर्दलीय विधान सभा में पहुंचे थे। जनता पार्टी ने 289 स्थानों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे इनमें से 29 ही विधान सभा पहुंचने में कामयाब हो सके। कांग्रेस ने 290 प्रत्याशी खड़े किए थे परंतु वह 20 स्थानों पर सिमट गई। चुनाव में जनता पार्टी को 29 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे और कांग्रेस को 20 प्रतिशत। वाम मोर्चे को 43.64 प्रतिशत मत मिले थे जिसमें माकपा को प्राप्त मतों का प्रतिशत 35.46 था।

कृषि क्रांति के कार्यक्रम के साथ शिव कुमार मिश्र के नेतृत्व मे उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, नेनीताल से लेकर लखीमपुर, नैनीताल, उन्नाव-हरदोई में सामंतवाद के खिलाफ क्रांतिकारी उभार आया। उन्नाव-हरदोई में कामरेड लखपत, रामस्वरूप और शिव कुमार सिंह, कामरेड कल्लू सहित आंदोलन के नेताओं को आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद गिरफ्तार कर 19 महीने जेल में नजरबाद रखा गया। कामरेड संतू इस दौर में लगातार भूमिगत रहे। शिवनाथ त्रिवेदी का देहावसान जेल में हो गया। कामरेड देवीगुलाम शहीद हुए। कामरेड सतपाल को फांसी की सजा सुनाई गई थी, जो आजीवन कारावास में बदल गई। कामरेड रामराज दो दशक से ज्यादा समय जेल में रहने के बाद छूटे। कामरेड राम चन्द्र सिंह, विभूति, अमर सिंह, किसनू, 14-14 साल जेल में अवरुद्ध रहे। यहां आंदोलन को जनता का व्यपक समर्थन हासिल था।

इटावा-औरैया में लोहियावादी समाजवादी अंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रभाव था। बकेवर में किसानों पर पुलिस फायरिंग से शुरु आंदोलन 1975 के जेपी आंदोलन के विकास में इटावा-औरैया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जे पी आंदोलन के लिए गठित प्रदेश स्तरीय समिति के संयोजक महावीर भाई इटावा के चंबल के बीहड़ में पछाए गांव से थे। वे 1934 में आचार्य नरेन्द्र देव व जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में भी थे। उनके नेतृत्व में अहेरीपुर में किसान सभा का प्रदेश सम्मेलन हुआ था। जय प्रकाश नारायण के साथ वे सर्वोदय में सम्मिलित हो गए थे। उन्होंने चम्बल में डाकुओं के आत्मसमर्पण के लिए चम्बल घाटी शांति मिशन गठित किया था, उनके प्रयासों से बागी डाकुओं ने जय प्रकाश नारायण के सम्मुख हथियार रखकर अत्म समर्पण किया था। उत्तर प्रदेश में जेपी आंदोलन के प्रमुख अर्जुन सिंह भदौरिया ने गांव-गांव घूम कर आंदोलन की अलख जगाई थी। वे संयुक्त समाजवादी दल के प्रदेश अध्यक्ष थे। वे छात्र जीवन में शचीन्द्र नाथ सान्याल के नेतृत्व में गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिक असोसिएशन (HRA) थे। उन्नाव में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में देवी दयाल दुबे, अर्जुन सिंह भदौरिया, किशनलाल जैन की जोड़ी मशहूर थी। 1942 में अर्जुन सिंह भदौरिया ने लाल सेना का गठन के अंग्रजों के राजस्व गोदाम(कोठियों) पर हमला किए और भूमिगत रहकर सशस्त्र आंदोलन का संचालन किया। देवी दयाल दुबे ने भूमिगत अखबार “भू चाल” निकाला। वे प्रखर पत्रकार थे। सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में फारवर्ड ब्लाक के संगठन मंत्री थे। 1939 में कांग्रेस के रामगढ़ सम्मेलन के पूर्व उन्होंने “गांधी युग का अंत” पुस्तक लिखी थी जिसमे 1919 से 1939 तक दो दशक के स्वतंत्रता आंदोलन की आलोचनातमक समीक्षा है। 1968 में इटावा से उन्होंने “देशधर्म” अखबार निकाला। सिडीकेट के खिलाफ वे हलांकि इंदिरा गांधी की नितियों को प्रगतिशील मानते थे परंतु जेपी के भी जबरदस्त समर्थक थे। 1968 से 1975 तक इटावा के छात्र-नौजवान आंदोलन के लिए उनका “देशधर्म” संबल था। 25 जून को आपात काल की घोषणा और जिला कलेक्टर द्वारा प्रेस सैंसर के उल्लंघन पर डीआईआर का हौवा दिखाए जाने का जवाब उनहोंने सम्पादीय कालम को इकबाल के एक शेर के साथ खाली छोड़ दिया था, “अल्लाह तेरे कानून की यह बंदिश, लब बंद जे़हन बंद, कलम बंद” । उसी दिन देवी दयाल दुबे और उनके पुत्र अभय कुमार दुबे को भी प्रशासन ने डीआईआर के प्रावधानों के तहत जेल में बंद करके 19 माह तक नजरबंद रखा।

छात्र आंदोलन

फ्रांस में 1968 में छात्र आंदोलन के साथ अन्य देशों की तरह भारत में भी छात्र आंदोलन की बयार चल रही थी। लोहिया का आह्वान संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के युवा संगठन समाजवादी युवजन सभा तक सीमित न था। छात्र एकता रणघोष बन गया था। 1उत्तर प्रदेश में पीएसी विद्रोह के साथ लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन विद्रोह की दिशा थी। मई 1973 में उत्तर प्रदेश में पीएसी ने विद्रोह कर दिया। लखनऊ विश्वविद्यालय के विद्यर्थियों ने समर्थन में सक्रिय भूमिका अदा की। मुख्यमंत्री कमलापत त्रिपाठी ने सेना बुला कर विद्रोह को कुचला। पीएसी के 35 जवान और सेना के करीब दो दर्जन जवानों की जान गई। सेना को काबू पाने में पांच दिन लगे। पीएसी के 500 जवानों को निकाला गया। और 795 जवानों पर मुकदमा चलाया गया उन्हें बरसों काल कोठरी (तनहाई) में बंद रखकर यातनाएं दी गईं। अंत मे मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को इस्तीफा देना पड़ा। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके बाद नवंबर 1973 में हेमवंती नंदन बहुगुणा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद पीएसी जवानों की कुछ मांगे मानीं। इसके बाद 1974 में जार्ज फर्नाडीज. के नेतृत्व में रेल कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। यह हड़ताल 20 दिन चली।

यही समय था जब गुजरात में छात्र आंदोलन के कारण गुजरात सरकार को इस्तीफा देना पड़ा था। मोरारजी देसाई ने भूख हड़ताल का ऐलान करके लोक सभा में हार से मुर्झाए चेहरे को चमकाने की कोशिश की परंतु छात्रों ने संसदीय नेताओं को भाव नहीं दिया। गुजरात के छात्र आंदोलन की चिंगारी बिहार में भी फैल गई। गफ्फूर सरकार के खिलाफ आंदोलन काफी प्रभावी हो गया। जय प्रकाश नारायण इस आंदोलन में अगुआई करने के लिए आगे आए। एक तो वे दलगत राजनीति से अलग थे, 1942 की अगस्त क्रांति के नेता थे, छात्रों ने उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया। जय प्रकाश नारायण ने दल विहीन प्रजातंत्र, सत्ता के विकेन्द्रीयकरण (उल्टा पिरामिड) व संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य नौजवानों और देश की जनता के सामने रखा था। उन्होंने सांसद, विधायक, विधान सभा के घेराव और सरकारी करमचारियों का आह्वान किया सरकार के गलत आदेश को नहीं माने। 1974 में इलाहबाद में छात्र नौजवानों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा “मैं आसमान में 1942 की तरह विद्रोह के बादल घुमड़ते देख रहा हूं।”

उत्तर प्रदेश के विश्व विद्यालयों, स्कूल-कालेजों में भी छात्र-नौजवान आंदोलन में उठ खड़े हो गए थे। कानपुर में गणेश दीक्षित, शिव कुमार बेरिया, राम शंकर अवस्थी, विजय अग्निहोत्री सहित समाजवादी युवजन सभा से संबंधित अनेक छात्रनेता, आईआईटी में स्वप्न लहरी, साधन सरकार, आर के तिवारी, ए पी शुक्ला आदि छात्र-कर्मचारी-प्रोफेसरों का समूह नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय से सक्रीय था मोना सूर, सुमन राज भी आईआईटी ग्रुप की गतिविधियों से जुड़े थे। कामरेड रामआसरे का निधन 1973 में हो गया था परंतु उनके समय बनी नौजवान सभा और मजदूर आंदोलन के साथियों में दौलत राम, उमा शंकर, अरविन्द. देवसेना, चक्रपाणी, श्रीधर, डाॅ आनन्द श्रीवास्तव, त्रियुगी नारायण पांडेय, अशोक, धनपत जैसे कई युवा आंदोलन की शक्ति बने। इनमें से कई पर आपात काल में छापे पड़े, उन्हें भूमिगत होना पड़ा, कई को मिसा, डीआईआर में जेल जाना पड़ा। कानपुर में जगदेव, महेश निगम जैसे कामरेड भी सक्रीय थे जो नक्सलबाड़ी आंदोलन से संबंधित थे। राम चन्द्र पाल डिप्टी पड़ाव में, सुल्तान बाबू कर्नल गंज-बजरिया में युवकों को उत्साहित करते थे इन युवकों में मुन्ना लाल ‘संतन’, विजय, गंगा प्रसाद आदि कई थे। गंगा प्रसाद को तो नक्सलवादी होने के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया था।

इटावा में 1973 में छात्र-युवा मोर्चे का गठन करके जमाखोरी के विरोध में अभियान शुरु किया गया था। जनता से जहां जीवनोंपयोगी वसतुओं के जमा होने की सूचना मिलती, नौजवानों का दल नारे लगाते पहुंच जाता और नियत मूल्य पर जमा की गई जीवन उपयोगी वस्तु का वितरण करने के लिए उसे विवश करता। महंगाई के आलम में जहां जमकर ब्लैक मार्केटिंग चल रही थी, आदोलन की यह रणनीति बहुत लोकप्रिय हुई। जिला प्रशासन ने अंत में एक जमाखोर से डकैती के आरोप में प्राथमिकी दर्ज करा करके इन युवकों को जेल भेजा। आपात काल में इनमें से एक प्रभात दुबे को सरकार विरोधी प्रकाशन के आरोप में गिरफ्तार करके डआईआर के तहत जेल में बंद कर दिया था र उसकी प्रेस जब्त कर ली थी।

Author:

Kamal Singh

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