विकास या विकास आतंकवाद नामक लेख मूलतः 2013 में लिखा गया था, तब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी और आज केंद्र में मोदी सरकार है। इस लिए इस लेख में दिए गए आंकड़े निश्चित तौर पर आज से थोड़ा भिन्न होंगे। लेकिन ये लेख इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ये लेख नवउदारवादी नीतियों के कारण जो देश में जो हालात हैं उनकी समीक्षा करता है। अब इन आर्थिक नीतियों का असर आदिवासियों के दायरे को तोड़ कर पुरे भारतीय समाज पर दिखने लगा है। अब तक जो अधिकांश मध्यम वर्ग जो सिर्फ बाजार के विस्तार को ही विकास मानकर बैठा हुआ था आज वो भी प्रत्यक्ष तौर इसकी कीमत चुकाक रहा है। देश में रोजगार नहीं है। शिक्षा स्वास्थ्य का हम पहले ही बाजारीकरण कर चुके हैं। अब बचे कूचे पब्लिक सेक्टर को भी बेचा जा रहा है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है। कोरोना काल में जहाँ मध्यम वर्ग का अच्छा खासा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे आया है, वही भारतीय अरबपतियों की सम्पति में दोगुना इजाफा हुआ हैं। इसे लेकर अब कई आंकड़े और रिपोर्ट हैं जो बताती हैं कि देश में आर्थिक असमानता किस तेजी से बढ़ी है। इस लिए यहाँ ज्यादा आकड़ों की बात नहीं करेंगे। मूल बात जो समझने कि है वो ये है कि अब हमें गम्भीररता से आर्थिक नीतियों की समीक्षा की जरुरत है। विकास को नए सिरे से परिभाषित करने की जरुरत है. जरुरत है एक नए तरह के आर्थिक मॉडल पर सोचने की। ये लेख उसी समीक्षा को आगे बढ़ता है। इस लिए ये लेख पुराना होते हुए भी प्रासंगिक है।
भारत दो हैं – एक इण्डिया और दूसरा भारत। यह एक आम मुहावरा बन चुका है जो कि राजनीतिक स्वीकृति भी पा चुका है। इण्डिया अपने कॉर्पोरेट बंगलों, जगमगाते मॉल, ऊँचे – ऊँचे फ्लईओवरों और नई नई गाड़ियों के लगातार चलते काफिलों से अलंकृत है। तो वही दूसरी और एक भारत है जो कि आत्महत्या करते किसानों, मजदूरों, बहिष्कृत दलितों, जल, जंगल, जमीन से खदेड़े जाते आदिवासियों , 70 प्रतिशत रोज बीस रूपए से कम आमदनी वाले, 49 प्रतिशत कुपोषित सड़कों पर भीख मांगते लोगों का है। क्या है इस विकास का सच? और क्या है इस भारत का सच? आज मजबूर आदिवासियों का गुस्सा जिसने अपने आप को नक्सलवादी आंदोलन के रूप में 120 से 160 जिलों में फैला लिया है, क्या उसे बेवजह माना जा सकता है? हमें ये समझने की जरुरत है कि समस्या सिर्फ अमीरी गरीबी की नहीं है परन्तु इस पिछड़े हुए भारत में गरीबी और भुखमरी को और गहरा करने की भी है, जिसकी परिणीति यह आंदोलन है।
असल में 8 प्रतिशत के आसपास की ऊँची विकास दर जिस पर इस इंडिया को बहुत नाज़ है असल में यह उस इंडिया की दर है जिससे यह इंडिया भारत से दूर होता जा रहा है। इस ढर्रे पर जितनी तेजी से विकास होगा अमीरी और गरीबी का फासला उतना ही बढ़ता जायेगा। उसके कमजोर पड़ने की प्रक्रिया के चलते उसके शोषण को रोकना, उसके अधिकारों की रक्षा करना मुश्किल दर मुश्किल होता जा रहा है।
वैश्वीकरण के चलते उसके साथ साथ चलने वाली निजीकरण और उदारवाद की प्रक्रिया बड़ी बड़ी कम्पनियों को बहुत सशक्त बना रही है, जिसके परिणाम देश में गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए घातक सिद्ध हों रहे है। जैसे जैसे देशी विदेशी पूंजीपतियों की ताकत बढ़ रही है वह राजनीतिक सत्ता को गुलाम बना रहे हैं और अपने मुनाफे के लिए उसका बेहिचक इस्तेमाल भी कर रहें हैं। अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो यह साफ साफ देखा जा सकता है कि जब भी बाजार के हाथ में एक सीमा से ज्यादा ताकत आ जाती है तो उसमे बेरोकटोक गरीबों का ही शोषण होता है।
निजी पूंजी संचय के लालच और प्रतिस्पर्धा के चलते दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था को गहरी क्षति होती है। जैसे कि 1929 की महामंदी या फिर हाल ही में 2008 का वित्तीय संकट हो। भारत जैसी बड़ी आबादी वाले और खासकर के इतनी बड़ी गरीब जनसंख्या को ध्यान में रखे तो यह रास्ता हमारे लिए आत्मघाती ही साबित होगा।
जब जब सरकारें पूंजीपतियों की गुलाम हो जाती हैं तब पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए अपनी ही जनता को मारने पर उतारू हो जाती है। जैसा कि इस समय आदिवासी इलाकों में हो रहा है जिसे लालगढ़ और दंतेवाड़ा के उदहारणों से समझा जा सकता है।
विकास के नाम पर की जाने वाली नृशंस हत्त्याएं विकास नहीं बल्कि विकास के नाम पर आंतकवाद है। आज इन्ही नीतियों के चलते बड़े पैमाने पर जमीनों को हड़पने और आजीविकाओं को खत्म करने की मुहीम चल रही है। चाहे वो ओद्योगीकीकरण के नाम पर हो, या बड़े बड़े बांधों को बनाने के नाम पर हो या कृषि के कॉरपोरेटीकरण के नाम पर, ये मुहीमें लगातार चल रही है। इस पर बढ़ते भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, किसान, आत्महत्याएं , आदिवासियों की हत्याएं, आदिवासियों के विस्थापन और शहरों की तथाकथिक सुंदरता को बिगाड़ती हुई लगातार बढ़ती कच्ची बस्तियों का कोई असर नहीं हो रहा है। एक आंकड़े के अनुसार सेज के नाम पर 2006 तक ही एक लाख चौसठ हजार हेक्टेयर जमीन ली जा चुकी है और अब गंगाएक्सप्रेसवे और यमुना एक्सप्रेससवे के लिए लाखों हेक्टेयर उपजाऊ जमीन को किसानों से हड़पने की पूरी कोशिश की जा रही है।
माइनिंग के लिए आदिवासियों के सवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध खुद सरकारें विस्थापन के नाम पर कत्लेआम कर रही है और न जाने कितनी ही ऐसी योजनाओं को पूंजीपति और सरकारें मिलकर अंजाम दे रही है और अपने आतंकवाद के दायरे को बढ़ाते जा रही हैं।
लेखक: मानस भूषण और साशा