मेवात में साम्प्रदायिकरण – एक सांस्कृतिक अध्ययन :- राजाराम भादू (भाग -७)

अध्याय -1 राजस्थान का साम्प्रदायिक परिदृश्य 

अध्याय -2 मेवातः इतिहास बनाम आख्यान

अध्याय -3 1857 और 1947: सहमेल और विपर्यय

अध्याय -4 6 दिसम्बर 1992 और उसके बादः दुःस्वप्न की वापसी

अध्याय -5 साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः समाजार्थिक व सांस्कृतिक कारक

अध्याय -6 साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के उपक्रम

अध्याय -7 शांति और सह-जीवन: प्रस्‍तावित कार्ययोजना व रणनीतियां

शांति और सह-जीवन: प्रस्‍तावित कार्ययोजना व रणनीतियां

मेवात का यह अध्‍ययन बताता है कि सामप्रदायिक आधार पर हिंदू व मेव समुदायों में अलगाव और वैमनस्‍य बढ रहा है। तथापि 1992 और इसके पश्‍चात के कुछ समय के अलावा हिंसा अथवा वृहद् द्वंद्व  के कोई खास उदाहरण नहीं मिलते हैं। इस क्षेत्र में आमतौर पर शांति बने रहने के कारणों में जाएं तो कुछ तो नकारात्‍मक कारण हैं जैसे, विभाजन की त्रासद घटनाओं की स्‍मृति और तदृजनित भय। दूसरे, ध्रुवीकृत सम्‍प्रदायों काशक्ति संतुलन एवं साम्‍प्रदायिक वैमनस्‍य से उत्‍पन्‍न्‍ घटनाओं को भी पुलिस व प्रशासन दृवारा सामान्‍य अपराध के रूप में लेना। जहां तक शांति कायम रहने के सकारात्‍मक कारकों का सवाल है, उसमें साझी विरासत या लोक-संस्‍कृति की अब बहुत ज्‍यादा भूमिका नहीं है। यह एक हद तक पुरानी पीढी की रूमानी स्‍मृतियों तक सीमित है। युवा पीढी लोक संस्‍कृति के लोकप्रयि रूपों, यथा रूतवाईऔर सिंगलवाटी के प्रति आकर्षित है जिसमें कोई सामाजिक संदेश नहीं है। दोनों समुदाय की साझी सांस्‍कृतिक भूमि को धार्मिक अनुष्‍ठानों और उपक्रमों ने अतिक्रमित कर लिया है । अब रोजमर्रा के पारस्‍परिक आर्थिक, विशेषत: व्‍यावसायिक कार्य-व्‍यापार और इसमें व्‍याप्‍त अंतरनिर्भताएं शांति और सहजीवन के सबसे सशक्‍त सकारात्‍मक कारक हैं।

प्रस्‍तुत अध्‍ययन की पृष्‍ठभूमि में यहां भविष्‍य के लिए कार्य योजना और उसके अंतर्गत अपनायी जाने वाली कुछ रणनीतियां प्रस्‍तुत  की जा रही है:-

(i) क्षेत्र के मूल मुदृदों को उभारा जाए

विगत एक दशक से मेवात में तीव्र हुई साम्‍प्रदायिकता की प्रक्रिया के चलते क्षेत्र के मूल मुदृदे निरंतर हाशिए पर जाते रहे हैं।यहां तक कि जन प्रतिनिधियों के निर्वाचन के समय भी जाति-धर्म समुदाय आधारित गठबंधन ही महत्‍वपूर्ण रहते हैं। जाहिर है कि इनमें धार्मिक और जातियों के नेताओं की वर्चस्‍वशाली भूमिका रहती है। राजनीतिक नेताओं की प्राथमिकता इन लोगों से समीकरण  स्‍थापित करना होता है। पूरे मेवात क्षेत्र में विगत एक दशक में किसी सामाजिक (यथा शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य आदि) व आर्थिक ( कृषि,सिचांई, उदृयोग, व्‍यवसाय आदि) मुदृदे को लेकर कोई बडा जन आंदोलन नहीं हुआ, जबकि गोकशी के विरोध या मदरसों के विस्‍तारको लेकर हिंदू-मुस्लिम  संगठन अक्‍सर सक्रिय  रहते हैं। हकीकत यह है कि प्राय: सभी जगह लोगों ने जन-सुविधाओं के अभाव और क्षेत्र की उपेक्षा की शिकायत  की लेकिन यह असंतोष किसी दबाव-समूह की शक्‍ल नहीं ले पाता।  अध्‍ययन बताते हैं कि जहां  सामाजिक-आर्थिक मुदृदों पर जन-संगठनों की सक्रियता है, वहां साम्‍प्रदायिक ताकतों को फैलाव अवसर नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि मेवात में राजनीतिक दलों की भूमिका के प्रति लोगों में एक आलोचनात्‍मक रवैया पनपे। साथ ही क्षेत्र के मूल मुदृदों के इर्द-गिर्द जन सक्रियता बढे। यह सही है कि किसी भी क्षेत्र की समस्‍याओं के लिए अनंत: वहां की जनता को ही लडनाहोता है। फिर भी बाहरसेकुछ ऐसी प्रक्रियाएं हो सकती हैं जो जन चेतना पैदा करने में मददगार हों। जैसेक्षेत्र के पिछडेपन की वास्‍तविक स्थिति और इसके कारणों को लोगों के बीच प्रचारित किया जाए। जैसे क्षेत्र के पछिडेपन की वास्‍तविक स्थिति और इसके कारणों को लोगों के बीच प्रचारित किया जाए। हमने देखा कि हरियाणा और राजस्‍थान के क्षेत्रीय विकास बोर्ड आवंटित बजट को भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं। इन्‍हें लेकर कोई जन सुनवाई आयोजित की जाए तो लोगों में इन्‍हें लेकर जागरूकता उत्‍पन्‍न होगी। ऐसे निकायों को लेकर पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग जन उभार की प्रारंभिक अवस्‍था हो सकती है।

(ii) शिक्षाऔर महिलाविकास के लिए विशेष अभियान

मेवात में शैक्षिक पिछडापन विकास प्रक्रिया में एक बडा अवरोध है। महिला शिक्षा की स्थिति तो और भी बदतर है। ग्रामीण मेव और हिंदू समुदायों में महिलाओं की हैसियतदेायम दर्जे की है। पित्सत्‍तात्‍मकता की जडें यहां बहुत गहरी हैं। मेव समुदाय में मदरसों की भूमिका सामान्‍यत: मुख्‍यधारा शिक्षा से बच्‍चों को विलग करने की रही है। ऐसी स्थिति में क्षेत्र में शैक्षिक प्रसारऔर महिलाओं की बेहतरी की लिए विशेष योजनाएं बनाने और इनके प्रभावी क्रियान्‍वयन की आवश्‍यकता है। इसके बिनास्‍थानीय समुदाय की गतिशीलता की कल्‍पना ही नहीं की जा सकती। देखागया है कि जब भी इस चुनौती से जूझने के लिए तैयारी के साथ कार्यवाही की गई है तो उसके सुखद परिणाम मिले है। यह ऐसा मसला है जिसे लंबे समय तक स्‍थगित नहीं रखा जा सकता ।

(iii) युवा मंचों का गठन और व्‍यावसायिक प्रशिक्षणोंको प्रोत्‍साहन

मेवात में युवा बेकारी की तादाद अपेक्षाकृत अधिक है। यद्यपि क्षेत्र में उच्‍च शिक्षित युवाओं की संख्‍या बहुत कम है लेकिन जिन्‍होंने किसी तरह उच्‍च शिक्षा हासिल भी कर ली है उन्‍हें कोई रोजगार मुहैया नहीं हो पाया है। इससेयुवाओं में हताशा और कुंठाबढ रही है और उनकी ऊर्जा का कोई सृजनात्‍मक उपयोग नहीं हो पा रहा है। शिक्षित युवतियों के लिए विकास प्रक्रियाओं के क्षेत्र में काफी अवसर हैं किंतु उच्‍च शिक्षा में उनकी उपस्थिति न के बराबर है। यदि उच्‍च शिक्षा आजीविका का मार्गप्रशस्‍त नहीं करती तो इससे शिक्षाकी उपादेयता प्रश्‍नबिद्ध हो जाती है।

ऐसी स्थिति में आवश्‍यक है कि युवक युवतियों के ऐसे मंचों का गठन हो जो उन्‍हें अपनी समस्‍याओं के संगठित निराकरणों का मार्गप्रशस्‍त करें। उन्‍हें व्‍यावसायिकत प्रशिक्षण प्रदान कर मौजूदा व्‍यवसायों के लिए कौशल प्रदान किया जा सकता है। साथ ही स्‍व रोजगार स्‍थापित करने की ओर प्रवृत्‍त किया जा सकता है। युवा मंचों पर क्षेत्र के वास्‍तविक मुदृदों पर विचार विमर्श किया जा सकता है और यहां से नेतृत्‍व की एक सचेत दूसरी पीढीतैयार होकर सामनआ सकतीहै।

(iv) स्‍वयंसेवा संगठनों/संस्‍थाओं का नेटवर्क और नागरिक समाज की भूमिका

हालांकि मेवात में जितनी स्‍व्‍यंसेवी संस्‍थाओं/ संगठनों की जानकारी मिलती है, क्षेत्र में उनकी उतनी प्रभावी उपस्थिति नहीं मिलती। यह स्थिति अन्‍यत्र क्षेत्रों में भी मिलती है, फिर भी यह मानान होगा कि मेवात में नागरिक समाज की अत्‍यंत  संभावनाशील और अहम् भूमिका हो सकती है। क्षेत्र में समर्पण और तैयारी के साथ काम करने वाली संस्‍थाओं ने गुणात्‍मक परिवर्तन की प्रक्रिया को अंजाम दिया है। लेकिन ऐसी संस्‍थाओं में पारस्‍परिक संवाद और अनुभवों के आदान-प्रदान की प्रक्रियाएं विकसित नहींहो पायी हैं। सिर्फ एकाध बार ऐसी कोशिशें हुई हैं जिनकी सराहना की गई। मेवात की स्थिति को लेकर बेहतर समझ बनाने,अपने अनुभवों को परस्‍पर बांटने और विशेष मुदृदों पर साझा रणनीति बनाकर साझा कार्यवाही करने लिए इस क्षेत्र की स्‍वंय सेवी संस्थाओं/संगठनों को नेटवर्किग की  आवश्‍यकता है। मेवात में अभी स्‍वयंसेवी संस्‍थाए/संगठन विकास कार्यक्रमों के क्रियान्‍वयन तक सीमित हैं। अधिकार और मानवचेतना अधिकारों को लेकर काम करने वाले संगठनों की इस क्षेत्र में उपस्थिति लगभग नगण्‍य हैा ऐसी स्थिति में साम्‍प्र‍दायिकता के प्रतिकार की संभावना तो धूमिल होती है बल्कि महिला, दलित और वंचितों के विरोध-स्‍वरों को भी दबानाया अनसुनाकरना आसान हो जाता है।

(v) धर्मनिरपेक्ष कार्य कलापों को प्रोत्‍साहन

जब संस्‍कृति की साझी भूमि साम्‍प्रदायिक धाराओं द्वारा अतिक्रमित की जा रही हो तो यह एक जरूरी कार्यभारहै कि जनतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष सांस्‍कृतिक सांस्‍कृतिक और बौदिध्‍क बल्कि अन्‍य सभी प्रकार के कार्य कलापों को प्रोत्‍साहित किया जाए।जबकि इस क्षेत्र में ऐसी कार्यवाहियों में निरंतर कमी आती जा रही है। आधुनिक संस्‍कृतिक रूप, यथा नाटक, संगीत,पेंटिंग, सार्थक सिनेमाऔर साहित्‍य का प्रसार क्षेत्र में नगण्‍य है। लोकप्रिय संस्‍कृति रूप, यथा बम्‍बईया सिनेमा, फिल्‍मी संगीत और फूहड लोक संगीत ही यंहा प्रचलन में हैं। इसके समांतर धार्मिक संस्‍कृतिरूपोंव अनुष्‍ठनों ने एक प्रकार की श्रेष्‍ठता और पवित्रता कायम हुई है। कभी कभार पारंपरिक लोक कलाओं को लेकर होने वाले कुछ कार्यक्रमों के अतिरिक कोई जन संवाद या बौदिध्‍क विमर्श भी यहां ओयाजित नहीं होते ।ऐसे संगठनों/ संस्‍थाओं का नितांत अभाव है जो आधुनिक धर्मनिरपेक्, जनतांत्रिक चेतना और संस्‍कृति को विकसित करने के प्रति सन्‍नद्ध हों। इस उपक्रम की आश्‍यकता स्‍वयंसिद्ध है।

(vi) मीडिया और प्रशासनतंत्र को संवेदनशील बनाना और पैरोकारी की आवश्‍यकता

अध्‍ययन में प्रसंगवश हमने बताया है कि मीडिया व प्रशासन, विशेषकर पुलिस इस क्षेत्र में मेव समुदाय के प्रति किस प्रकार पूर्वाग्रह ग्रस्‍त  है। मीडिया व प्रशासन तंत्र में मेव व दलित समुदाय का प्रतिनिधित्‍व असंगत है। ऐसी स्थिति में यह जरूरी हो जाता है कि व्‍यवस्‍था के अविभाज्‍य अंगों प्रशासन व पुलिस को इस समुदाय के प्रति संवेदनशील बनाया जाए और उन्‍हें प्रर्वाग्रहों व भ्रमों से मुक्‍त किया जाए। ऐसा ही उपक्रम मीडिया के साथ भी जरूरी है । लेकिन यह कोई एक बार की कार्यवाही नहीं है जिससे समस्‍या सुलझ जाएगी। बल्कि ऐसे स्‍थायी मंचों की आवश्‍यकता है जहां प्रशासन, पुलिस व मीडिया के साथ आम लोगों का संवाद व अन्‍तर्क्रिया संभव हो। स्‍थानीय जन संगठन और इस क्षेत्र में कार्यरत संस्‍थाएंऐसी पहल ले सकती हैं और आम लोगों की प्रशासन, पुलिस, न्‍यायिक संस्‍थाओं व मीडिया में पैरोकारी करने का कार्य कर सकती हैं।एक समय बाद स्‍थानीय समुदायों में ऐसे सक्रिय समूह उभर कर आ सकते हैं।

(vii) स्‍थानीय संस्‍थाओं का आधुनिकीकरण व जनतांत्रिकरण करना

क्षेत्र में सरकारी व पारंपरिक संस्‍थाओं पर वर्चस्‍वशाली तबकों का आधिपत्‍य है। इसकी रीति-नीति सामान्‍यत: एकाधिकारवादी एवं पारंपरिक है। इसमें विकास बोर्, वक्‍फ बोर्ड, मदरसा बोर्ड व मंदिर मस्जिदों सहित दर्जनों प्रकार के सैंकडों संस्‍थान शामिल हैं।वर्तमान स्‍वरूप और चरित्र के चलते ये साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढावा ही प्रदान करते हैं। इनके आधुनिकीकरण और जनतांत्रिकरण की आवश्‍यकता है। पंचायती राज प्रणाली में आरक्षण के चलते ग्रामीण स्थिर जीवन में एक प्रकार की उथल पुथल आरंभ हुई है यद्यपि वर्चस्‍वशील यथास्थितिवादी ताकतें अभी भी इन पर प्रभुत्‍व बनाए हुए हैं।इस प्रणाली के मूलभूत जनतांत्रिक चरित्र ने अनेक जगह साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को अवरूद्ध भी कियाहै। इसी भांति जहां मदरसों के आधुनिकीकरणके गंभीर प्रयास हुए हैं, उसके बेहतर नतीजे आए हैं। जनतांत्रिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो मंदिर मस्जिद जैसी संस्‍थाओं को भी पारदर्शिता और सामाजिक जवाबदेही की परिधिमें ले आती है। आधुनिक चेतना का अर्थ है व्‍यकित स्‍वातंत्र्य, समानता और सांस्‍कृतिक बहुलवाद के मूलभूत सिद्धांतों में व्‍यावहारिक मान्‍यता। यही वह चीज है जो पारंपरिक व साम्‍प्रदायिक मूल्‍य मान्‍यताओं का स्‍थानापन्‍न और स्‍वाभाविक विकल्‍प हो सकती है।

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