मेवात में साम्प्रदायिकरण – एक सांस्कृतिक अध्ययन :- राजाराम भादू (भाग -२)

अध्याय -1 राजस्थान का साम्प्रदायिक परिदृश्य 

अध्याय -2 मेवातः इतिहास बनाम आख्यान

अध्याय -3 1857 और 1947: सहमेल और विपर्यय

अध्याय -4 6 दिसम्बर 1992 और उसके बादः दुःस्वप्न की वापसी

अध्याय -5 साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः समाजार्थिक व सांस्कृतिक कारक

अध्याय -6 साम्प्रदायिकता के प्रतिकार के उपक्रम

अध्याय -7 शांति और सह-जीवन: प्रस्‍तावित कार्ययोजना व रणनीतियां

मेवातः इतिहास बनाम आख्यान

1908 के इम्पीरियल गेजेटियर में मेवात उस अस्पष्ट से इलाके को कहा गया है जो दिल्ली के दक्षिण में स्थित है। इसमें ब्रिटिश जिले मथुरा, गुड़गांव व अलवर का अधिकतर भाग और भरतपुर का एक हिस्सा शामिल था। अमीर अली के अनुसार मेवों ने 16 वीं शताब्दी में दिल्ली के संतों और सूफियों के सम्पर्क में आकर इस्लाम धर्म अपनाया। एक अनुमान के अनुसार मेवों की कुल जनसंख्या करीब साढ़े आठ लाख है जिसमें लगभग साढ़े चार लाख हरियाणा में बसे हैं और शेष राजस्थान में। प्रशासनिक दृष्टि से इस भू-सांस्कृतिक अंचल का एक बड़ा हिस्सा हरियाणा के गुड़गांव व फरीदाबाद जिलों में आता है जबकि उसका दक्षिण भाग राजस्थान के अलवर व भरतपुर जिलों में पड़ता है। मेवात को लेकर वस्तुपरक और प्रामाणिक इतिहास का अभाव दिखता है। मेवों का इतिहास कुछ शताब्दी पीछे जाने पर आख्यानों के अंधेरे में खोया मिलता है। इसे लेकर मनमानी निर्मितियां हैं।

मेव अंचल के अंधेरे अतीत को लेकर कई व्याख्याएं सामने आयी हैं। इनमें से हम यहां दो प्रमुख व्याख्याओं की चर्चा करेंगे। इनमें से एक व्याख्याकार शैल मायाराम की मान्यता है कि इतिहास सामान्यतः संघर्षों और समन्वय की कहानियों को ही दर्ज करने की ओर प्रवृत्त रहे हैं। दोनों ही स्थितियों में उनका जोर प्रभु वर्गों की संस्कृति, जीवनशैली, राजनीतिक, स्थापत्य, भाषा और साहित्य पर केन्द्रित होता है। ऐतिहासिक रिकार्ड मुख्यतः संघर्षों के पुरालेख ही रहे हैं। इनमें जन सामान्य के दैनंदिन जीवन की झांकियां नदारद रही हैं। शैल मायाराम मेव पहचान को समन्वयवाद, संकरण और संश्लिष्ट, संस्कृतियों के फ्रेमवर्क में रखकर विचार करती हैं और इसे मिश्रित करार देती हैं। शैल मायाराम के अनुसार संकरण व्यापक पलायन, अंतर-सांस्कृतिक विवाहों और अन्तर्देशीय पहचानों की उपज है। यह भी द्वन्द्व के समाधान का एक प्रकार है किन्तु यह काॅस्मोपालिटन शहरों की परिघटना है। शैल समन्वयवाद की यह कहकर आलोचना करती हैं कि यह सामान्यतः दो धर्मों के बीच के सम्बन्ध से संदर्भित है जिसमें ’स्वं’ और ’अन्य’ दो ध्रुव हैं। इसमें धर्मसत्ता समूह की एकमात्र आवाज मान ली जाती है और धर्म को एक मुख्य परम्परा के रूप में वैधानिकता मिल जाती है। इसमें संस्कृति की लघु परम्पराएं और अर्थ-संदर्भों की बहुलता खो जाती है। संश्लिष्ट संस्कृति द्वि-आधारी पहचानों से संयुक्त हो सकती है और अपने लिए तीसरी जगह बना सकती है। वे इसे टेलर के पद ’द्वि-संस्कृतिवाद’ की पुनर्व्याख्या मानती हैं। संश्लिष्ट संस्कृति के फ्रेमवर्क में शैल मायाराम ने मेवाती (मेव क्षेत्र की लोक बोली) के आख्यानों और गाथाओं का विष्लेषण किया है। इससे वे मेव समुदाय की स्मृतियों, सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक अस्मिता की पड़ताल करती हैं। ’पण्डून कौ कडा’ (सादल्ला ओर नबी खां द्वारा 18 सदी में रचित), ’बंशावली’ (कंवर खान), ’धमूकर’ (छोटू मेव) जैसी गाथाओं और ’चन्द्रावल गुर्जरी’, ’शम्सुद्दीन पठान’, ’महादेव गौरा की बात’ जैसी कथाओं का विश्लेषण करके शैल मेव समुदाय द्वारा हिन्दू पौराणिकता की भिन्न व्याख्या व चित्रण को मुस्लिम देशकाल की मान्यताओं से अलगाती हैं। मौखिक परम्परा से सम्बन्धित ये कृतियां एक साथ काव्यात्मक और पौराणिक हैं। वे इन कृतियों के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम मित्रता और सहजीवन के संदर्भों को रेखांकित करती हैं। वे स्टुआर्ड हाल की इस धारणा का समर्थन करती है कि अस्मिता न तो एकायामी है और न ही स्थिर। आखिरकार वे यह भी स्वीकारती हैं कि मेरी पहचान हिन्दूवाद और इस्लाम के बीच कहीं स्थित है।

दूसरा नजरिया मेव समुदाय की संस्कृति को आदिवासी, हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का सम्मिश्रण मानता है। इसके अनुसार मूलतः आदिवासी मेवों ने हिन्दू जाति व्यवस्था को अपना लिया था। इस नजरिये के अनुसार मेवाती संस्कृति आदिवासी संस्कृति के तीन प्रमुख प्रक्रियाओं से गुजरने की परिणति हैः (1) ब्रज संस्कृति का प्रभाव, (2) राजस्थानी संस्कृति का प्रभाव और (3) इस्लामी संस्कृति का प्रभाव। पहली दो प्रकियाएं जहां संस्कृतिकरण का परिणाम हैं, वहीं तीसरी इस्लामीकरण का सूचक है। मेवाती लोकगीत, गोत्र व्यवस्था, शादी की रीतियां और जजमानी प्रणाली ब्रज संस्कृति के प्रभाव से विकसित हुई हैं जबकि नायकत्व, शौर्य और बहादुरी की गाथाएं राजपूती सामंती प्रवृत्तियों का अनुकरण हैं। मेव पालों में जगा और मीरासियों की परम्परा भी यही दर्शाती है।

मेव अंचल की समकालीन स्थिति से लगता है कि दूसरा नजरिया यथार्थ से कहीं ज्यादा नजदीक है। शैल मायाराम अपने अध्ययन में मेवों के आदिवासी होने की संभावना पर विचार नहीं करतीं। वे मेवों के धर्मांतरण में सूफी संतों की प्रेरणाओं को तो महत्व देती हैं किन्तु मेव समुदाय की संस्कृति को सूफी परम्परा ने कैसे प्रभावित किया, इसका पृथक से विवेचन नहीं करतीं। वे मेवाती की पूरी मौखिक साहित्य परम्परा को मिलाकर देखती हैं। जबकि वस्तुत ’बंशावली’, ’पण्डून को कड़ा’, या ’घुडचढ़ी मेव की बात’ जैसी गाथाएं, जो राजपूत सामंतों की वीर-गाथाओं की तर्ज पर रची गयी हैं मेव सरदारों के नायकत्व को गौरवमंडित करती हैं, बाकी मेवाती लोक साहित्य से भिन्न हैं बेशक हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के संम्मिश्रण के तत्व इनमें मौजूद हैं। मेवाती बात व दूहा साहित्य, संतों का काव्य और रतवाई व सिंगलवाटी जैसी लोक-विधाओं का चरित्र भिन्न है। शैल मेव समुदाय की जाति संरचना को भी अद्भुत मिश्रण बताकर रह जाती हैं, उनकी अधीनस्थ स्थिति का वृतांत नहीं बतातीं। जबकि दूसरा नजरिया इसे हिन्दू जाति व्यवस्था का स्पष्ट अनुकरण कहता है। असल में इस समुदाय के प्रति शैल आलोचनात्मक नजरिये से नहीं देखतीं।

इस संदर्भ में, मेव अंचल में भी भक्ति आंदोलन का प्रभाव और सूफी संतों का सहित्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह जाति-धर्म के आधार पर व्यक्ति को पहचना नहीं देता बल्कि उसे व्यक्ति के रूप में पहचानता है। मेवाती लोक कवियों में संत लालदास, भीक जी, चरणदास, सहजोबाई, दयाबाई, अली बख्श और खक्के कवि का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके अतिरिक्त दानशाह, नबी खां, मीर खां, ऐवज, नत्थू और गुलजारी आदि भी मेवाती लोक कवियों में शामिल हैं। इनकी रचनाएं मौखिक परम्परा से संचित व संरक्षित रही हैं। इनकी सृजनधारा में सूफी और निर्गुण भक्ति आंदोलन का सहमेल है। ये धार्मिक शुद्धतावाद, संकीर्णता और अलगाव के विपरीत मानवीय गरिमा के पक्षधर हैं। वास्तव में इन्होंने एक साझी संस्कृति के धरातल को विस्तार दिया था। लेकिन विडम्बना यह है कि वर्तमान में मेव नायकों की शौर्य-गाथाएं हों या संत साहित्य, सभी विस्मृत होता जा रहा है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया की मुख्य धुरी अब धर्म है जो साम्प्रदायिकरण को गति दे रही है।

तृतीय अध्याय के लिए जुड़े रहें….

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